Sep 26, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

आइये दोस्तों, आज के लेख की शुरुआत एक कहानी से करते हैं। बात उस वक़्त की है जब राजपुर का राज्य एक बहुत ही बुद्धिमान, प्रभावशाली, कवि हृदय राजा सम्भाला करते थे। उस वक़्त उनकी ख्याति इतनी अधिक थी कि आसपास के दूसरे राजा भी उनसे सलाह-मशविरा कर अपना राज्य चलाया करते थे। एक दिन रात्रि विश्राम के दौरान राजा के मन में विचार आया कि ईश्वर ने उन्हें तमाम धन-संपदा, ज्ञान, स्वास्थ्य आदि अनेकों चीजों से नवाज़ा है, इसलिए वे असीम भाग्य के धनी हैं। चूँकि राजा कवि हृदय के साथ-साथ संस्कृत के भी अच्छे ज्ञानी थे इसलिए उन्होंने लेटे-लेटे ही अपनी बातों और भावों को शब्दों में पिरोना शुरू किया और जल्द ही उन्हें तीन चरणों में पिरो लिया। लेकिन यह अभी भी अधूरा था क्योंकि इसकी चौथी लाइन याने अंतिम चरण अभी अधूरा था, जिसे वे काफ़ी सोचने के बाद भी पूरा नहीं कर पा रहे थे। जैसा कि ऐसी स्थिति में सामान्यतः कवियों और गीतकारों द्वारा किया जाता है, राजा ने भी इन तीनों चरणों को बार-बार गुनगुनाते हुए, दोहराना शुरू कर दिया:
चेतोहरा युवतयः सुहृदोऽनुकूलाः।
सद् बान्धवाः प्रणतिमगर्भगिरश्च भृत्याः।
गर्जन्ति दन्तिनिवहास्तरलास्तुरंगाः।
अर्थात् मेरे चित्त को मयूर के समान नृत्य से खुश करने वाली आकर्षक और मिलनसार युवतियों का साथ और प्यार मिला। मुझे अच्छे संबंधी, स्वभाव के अनुकूल मित्र, आदर्श पत्नी आदि सुख देने वाले लोगों का साथ मिला। मेरे महल के द्वार पर बड़े-बड़े दांतों वाले मदमस्त हाथी चिंघाड़ते हैं। गर्व और शक्ति से संपन्न चंचल घोड़े हिनहिनाते हैं। मैं सर्वाधिक शक्ति संपन्न और भाग्यशाली हूँ। मुझ पर ईश्वर की असीम कृपा है और मुझे अपने भाग्य पर गर्व है।
संयोग से उस दिन राजमहल में चोरी करने के उद्देश्य से एक चोर घुस आया था, जो राजा को तीनों चरणों को बार-बार गुनगुनाते हुए सुन रहा था और संस्कृत का जानकार यह कवि हृदय चोर अब यह जान चुका था कि राजा के दिमाग़ में चौथा चरण याने चौथी लाइन बन नहीं पा रही है। राजा के शयन कक्ष में पलंग के नीचे दुबक कर बैठे, समस्यापूर्ति के अभ्यासी चोर का हृदय इस चौथी लाइन को पूरा करने के लिए मचलने लगा। मन में पैदा हुई इस कसक के चलते चोर, यही भूल गया कि वो चोर है और वह राजमहल में चोरी के उद्देश्य से आया है। अगली बार राजा ने जैसे ही तीनों लाइन पूरी करी, वैसे ही चोर के मुँह से अचानक ही चौथी लाइन निकल पड़ी, ‘सम्मीलने नयनयोर्नहि किंचिदस्ति॥’ अर्थात् राज्य, वैभव, मित्र और संबंधी आदि सभी लोग तभी तक हैं, जब तक आँखें खुली हैं। आँखें बंद होने के बाद, कुछ भी नहीं रहता। इसलिए तुम किस पर गर्व कर रहे हो?
चोर की कही इस बात ने एकदम से राजा की आँखें खोल दी। उन्हें हक़ीक़त समझ आ चुकी थी। वे आश्चर्य से भरकर चारों ओर विस्तारित नेत्रों से देखने का प्रयास कर रहे थे कि ऐसी आत्मज्ञान से भरी बात आख़िर कही किसने? उन्होंने उसी पल कहा, ‘पलंग के नीचे जो भी हो, वह तत्काल मेरे सामने उपस्थित हो।’ राजा का आदेश सुन चोर बाहर निकल आया और हाथ जोड़ कर याचक के रूप में बोला, ‘हे राजन! मैं आया तो चोरी करने था, पर आप के द्वारा पढ़े जा रहे श्लोक को सुनकर मैं यह भूल गया कि मैं चोर हूँ। मेरा काव्य - प्रेम उमड़ पड़ा और मैं चौथे चरण की पूर्ति करने का दुस्साहस कर बैठा। हे राजन! मैं अपराधी हूँ। मुझे क्षमा कर दें।’
चोर की अपेक्षा के विपरीत राजा ने उसे सम्मान देते हुए कहा, ‘तुम अपने जीवन में भले ही कुछ भी करते हो लेकिन इस वक़्त तुम मेरे गुरु हो। तुमने मेरा परिचय जीवन के यथार्थ से करवाया है। ‘आँखें बंद होने पर कुछ भी नहीं रहता।’, कहकर तुमने मेरे चक्षु खोल दिये। मैं जिस वैभव के बीच में ख़ुद को देख और खोज रहा था, वे तो मेरी इन्द्रियों की तृप्ति के खिलौने मात्र हैं।’ चोर कुछ समझ पाता उसके पहले ही राजा अपनी बात आगे बढ़ाते हुए बोले, ‘आज तुमने मेरे भीतर की आँखें खोल दी। इसलिए 'शुभस्य शीघ्रम’ को आत्मसात् करते हुए मैं इसी क्षण जीवन के वास्तविक लक्ष्य को पाना चाहता हूँ। इस ज्ञान को देने के लिए शुक्रिया, बताओ मैं तुम्हें भेंट स्वरूप क्या दे सकता हूँ।’ राजा की बात पूर्ण होते ही चोर ने अपने हाथ जोड़े और बोला, ‘जैसे इस वाक्य ने आपके मन को बदला है, ठीक वैसे ही इसने मेरा मन भी बदल दिया है। मैं भी अब अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य को जानना चाहता हूँ।’
दोस्तों, जिस तरह राजा अहंकार वश ख़ुद को भौतिक चीजों के आधार पर भाग्यवान और चोर ज़रूरतों को पूरा करने की उधेड़बुन में जी रहा था, ठीक इसी तरह की उलझन में हम लोग भी अपना जीवन जी रहे है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो जीवन में सफलता और लक्ष्य पाने की उधेड़बुन में उलझा रहना, आज के भागदौड़ भरे जीवन में सामान्य है। जो यह लक्ष्य पा लेता है, वह ख़ुद को विशेष मान दिखावे में लग जाता है और जो इन लक्ष्यों को नहीं पा पाता है, वह इन्हें पाने की उधेड़बुन में लग जाता है। कुल मिलाकर कहा जाये तो वास्तविक लक्ष्यों के स्थान पर क्षणिक सुख पाने के लिए इंसान आज बेचैनी भरी ज़िंदगी जी रहा है। जिस तरह दोस्तों एक पंक्ति ‘आँखें बंद होने पर कुछ भी नहीं रहता।’, ने राजा और चोर दोनों को हक़ीक़त से रूबरू करा दिया था, ठीक वैसे ही इसे याद रख हम भी बेचैनी और भटकाव से बच कर जीवन के वास्तविक लक्ष्य ‘ख़ुद को खोजना’ को पा सकते हैं।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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