top of page

प्रायश्चित है ज़रूरी…

Writer's picture: Nirmal BhatnagarNirmal Bhatnagar

Aug 26, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, जीवन की पूर्णता; उत्कृष्टता के चक्कर में ग़लतियाँ करने से बचने में नहीं, अपितु ग़लतियों से सीख कर अपनी क्षमताओं को पहचानने, उन्हें निखारने और फिर उनसे ख़ुद को और समाज को बेहतर बनाने में है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो अगर ग़लतियाँ ख़ुद और समाज को बेहतर बनाने का जरिया बन जायें तो कहा जा सकता है कि ‘ग़लतियाँ अच्छी हैं…’ सही कहा ना… इसी तरह दोस्तों, जाने-अनजाने में किए पापों का प्रायश्चित अगर अपनी गलती को स्वीकार कर मन में पश्चाताप से कर लिया जाये तो भी अपने जीवन और समाज को बेहतर बनाया जा सकता है। चलिए अपनी बात को मैं आपको इलियट और डाउसन के ग्रंथ से ली गई एक कहानी से समझाने का प्रयास करता हूँ।


बात कई साल पुरानी है, एक बार जंगल से गुजरते वक्त राजा की नज़र एक बहुत ही सुंदर युवती पर पड़ी। उसे देखते ही वे उस पर मोहित हो गए और उनके मन में विचार आया कि मैं इस सुंदरी को उठाकर अपने राजमहल ले जाता हूँ। विचार आते ही राजा अपने घोड़े से उतरा और उस युवती को उठाने के लिए उसकी ओर जाने लगा। अभी वह दस कदम ही चला था कि उसे बोध हुआ कि वह पाप करने जा रहा है। उसने तुरंत अपना निर्णय बदला और अपने घोड़े पर बैठ अपने राज्य की ओर चल दिया।


राजमहल पहुँचने के बाद भी राजा को लगता रहा कि उसने पाप किया है और उसे इसका प्रायश्चित करना चाहिये। राजा अपने गुरु के पास गया और उन्हें पूरी बात कह सुनाई और प्रायश्चित का रास्ता पूछा। इस पर गुरु कुछ क्षण विचार कर बोले, ‘महाराज, अग्नि में प्रवेश के सिवा आपके पाप का कोई और प्रायश्चित नहीं है।’ गुरु की बात सुन राजा एकदम हतप्रभ रह गये कुछ पल शांत रहने के बाद उन्होंने एक बार फिर इस विषय में अपने गुरु से पूछा, तो गुरु बोले, ‘राजन, प्रायश्चित के लिए इसके सिवा और कोई मार्ग नहीं है। अगर आप प्रायश्चित नहीं करना चाहते हैं तो कोई बात नहीं।’


गुरु का अंतिम निर्णय सुनते ही राजा ने प्रायश्चित करने के लिए अग्नि समाधि लेने की घोषणा कर दी और राजगुरु सहित मंत्रियों और रानियों को अपने निर्णय से अवगत कराते हुए कहा कि उनकी अग्नि समाधि के बाद वे युवराज का राज्याभिषेक कर दें। राजा के निर्णय से पूरे राज्य में खलबली सी मच गई। रानियों सहित सभी ने राजा और उनके गुरु को समझाने का प्रयास किया, लेकिन दोनों ही प्रायश्चित की इस व्यवस्था में ढील देने को राज़ी नहीं हुए।


तय दिन राजा ने परिजनों से विदा ली, अपने गुरु को प्रणाम किया और अग्नि में प्रवेश करने के लिए चल दिया। अभी वह दस कदम ही चला था कि गुरु ने राजा को रुकने का आदेश देते हुए कहा, ‘राजन, रुक जाइए क्योंकि आपका प्रायश्चित पूरा हो गया है।’ राजा ने आश्चर्यचकित होते हुए कहा, ‘गुरुजी, अभी तो मैंने अग्नि में प्रवेश ही नहीं किया है, फिर प्रायश्चित कैसे पूरा हो गया?’ गुरुजी बोले, ‘राजन, आप उस युवती की ओर दस कदम ही चले थे। आपने उसको स्पर्श नहीं किया था।’ राजा अब सारी बात समझ चुका था, उसने गुरुजी को प्रणाम किया और कहा आपने बिलकुल उचित प्रायश्चित करवाया है।


दोस्तों, अब आप समझ ही गए होंगे मैंने पूर्व में क्यों कहा था कि ‘पाप का असली पश्चाताप मन में ही होता है।’ जब आपको एहसास हो जाता है कि आपने पाप किया था अर्थात् आपके कर्म ग़लत थे और इस वजह से आपका मन दुख से भर जाता है, तो यही उसका सही पश्चाताप है। इसलिए अपनी गलती को स्वीकार कर हम सभी पश्चाताप से प्रायश्चित कर सकते हैं और इसके लिए आपको किसी विशेष कार्य या रास्ते को नहीं चुनना है। जिस भी कार्य से मन को शांति मिले; जिससे पाप मुक्त होने का एहसास हो, वही सही प्रायश्चित है।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

4 views0 comments

Comments


bottom of page