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Writer's pictureNirmal Bhatnagar

प्रेम और समर्थन से करें बच्चे की परवरिश…

Oct 26, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, अगर आप मुझसे पूछें कि इस जहाँ में सबसे अधिक संतोष देने वाला, तमाम चुनौतियों से भरा कौन सा कार्य है, तो मैं कहूँगा बच्चों की परवरिश करना। जी हाँ दोस्तों! हर माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे आत्मविश्वासी, सहानुभूतिशील और जिम्मेदार बनें। इसीलिए वे सजग और सतर्क रहते हुए उन्हें अच्छी से अच्छी शिक्षा और संस्कार देने का प्रयास करते हैं। लेकिन उनकी यही सजगता कई बार अनावश्यक रोका-टोकी में बदल जाती है और आत्मिक संतोष देने वाला यह कार्य चुनौतीपूर्ण बन जाता है।


दोस्तों अगर आप इस चुनौतीपूर्ण अनुभव को अपने लिए आत्मीय और आनंददायक अनुभव बनाना चाहते हैं तो मेरा सुझाव है आप सकारात्मक परवरिश याने पॉज़िटिव पैरेंटिंग को अपनाइए। 'सकारात्मक परवरिश’ याने बच्चों को ऐसे वातावरण में बड़ा करना जहाँ वे भावनात्मक, मानसिक और सामाजिक रूप से विकसित हो सकें। परवरिश का यह तरीक़ा खुले सकारात्मक संवाद और परस्पर सम्मान पर इस तरह ज़ोर देता है जिससे बच्चे और माता-पिता के बीच एक मज़बूत विश्वास आधारित रिश्ता बन सके।


परवरिश की इस शैली में माता-पिता अपने बच्चों को प्रेम, दया, सहानुभूति के साथ मार्गदर्शन देते हैं; उनका सकारात्मक नज़रिए से सपोर्ट करते हैं, जिससे बच्चे अनुशासित और सकारात्मक रहना व परिस्थितियों का आकलन करते हुए उचित निर्णय लेना सीख सकें। इस शैली की परवरिश में बच्चों को गलती करने पर दंड देने के स्थान पर, उनकी भावनाओं, ज़रूरतों और व्यवहार को समझने पर ज़ोर दिया जाता है। इसके साथ इस बात का विशेष तौर पर ध्यान रखा जाता है कि बच्चे अच्छी आदतें अपना सकें, ज़िम्मेदारी के साथ जीवन में उचित निर्णय लेते हुए आगे बढ़ सकें, जिससे उनके व्यक्तित्व का संतुलित विकास हो सके।


दोस्तों इस बात का यह क़तई अर्थ नहीं है कि परवरिश की इस शैली में बच्चों के लिए कोई नियम या सीमाएँ नहीं होती। इस शैली में नियम और सीमाओं को संतुलित दृष्टिकोण के साथ साधा जाता है। अर्थात् इस शैली में अनुशासन; सम्मान और समझ पर आधारित होता है, न कि डर पर। आइये, आज हम पॉजिटिव पैरेंटिंग याने सकारात्मक परवरिश के पाँच प्रमुख सिद्धांत समझते हैं।


पहला सिद्धांत : सहानुभूति और समझ

कल्पना करें कि एक ५-६ वर्षीय बालक से दूध फ़र्श पर गिर गया है। ऐसी स्थिति में ग़ुस्से से प्रतिक्रिया देने के स्थान पर सकारात्मक परवरिश में माता-पिता बच्चे को समझाते हुए कहेंगे, ‘कोई बात नहीं, कभी-कभी दुर्घटनाएँ हो जाती हैं। आओ अब हम मिलकर इसे साफ़ करते हैं।’ इस तरह की सकारात्मक प्रतिक्रिया उन्हें शर्मिंदा हुए बिना गलती को स्वीकार करते हुए, ज़िम्मेदार बनना सिखाती है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो पॉजिटिव पैरेंटिंग में बच्चों को गलती करने पर डराया, मारा या डाँटा नहीं जाता है, बल्कि उन्हें सहानुभूति और समझ के साथ, उनकी भावना और दृष्टिकोण को समझते हुए, डील किया जाता है।


दूसरा सिद्धांत : आलोचना से बेहतर प्रोत्साहन है

कल्पना करें कि बच्चा विद्यालय से मिले अपने रिपोर्ट कार्ड को लेकर आपके पास आता है, जिसमें उसे मेहनत करने के बाद भी आशानुरूप परिणाम नहीं मिला है। ऐसी स्थिति में बच्चे को उसकी ग़लतियाँ याद कराते हुए डाँटने, डराने या बार-बार टोकने के स्थान पर सकारात्मक परवरिश में माता-पिता या पालक बच्चे को समझाते हुए कहेंगे कि ‘मैंने तुम्हें इस परीक्षा या प्रोजेक्ट पर कार्य करते हुए देखा था। मुझे इस बात पर गर्व है कि तुमने इस पर मेहनत की। चलो अब हम अगली बार परिणाम को और बेहतर बनाने के लिए क्या कर सकते हैं, इस पर चर्चा कर लेते हैं।’ दूसरे शब्दों में कहूँ तो पॉजिटिव पैरेंटिंग में परिणाम की जगह प्रयासों की सराहना करने पर ज़ोर दिया जाता है। ग़लतियों की आलोचना करने के स्थान पर बच्चे की छोटी-छोटी सफलताओं का जश्न मनाया जाता है; फिर भले ही अंतिम परिणाम असफलता ही क्यों ना हो। हमेशा बच्चे की मेहनत की सराहना करें।


तीसरा सिद्धांत : स्पष्ट सीमाएँ प्यार के साथ निर्धारित करें

कल्पना कीजिए आज बच्चा समय पर ना सोने की ज़िद कर रहा है। ऐसी स्थिति में उसे डराने, धमकाने या सोने के लिये मजबूर करने के बजाय, सकारात्मक परवरिश में माता-पिता कह सकते हैं कि ‘कल सुबह तुम पूरी ऊर्जा के साथ ताजगी महसूस करते हुए उठो, इसलिए समय पर सोना ज़रूरी है। क्यों ना हम आज सोने से पहले एक कहानी पढ़ें?’ दूसरे शब्दों में कहूँ तो सकारात्मक परवरिश में बच्चों को रोज़मर्रा के नियम तर्कों के साथ समझाये जाते हैं। अर्थात् सकारात्मक परवरिश में बच्चों को उनकी सीमाएँ स्पष्ट, तर्क संगत और स्नेहपूर्ण तरीक़े से समझाई जाती है। बच्चों को रोजमर्रा के जीवन के नियमों को इस प्रकार समझाया जाता है कि वे उनके पीछे का कारण समझ सकें।


चौथा सिद्धांत : समस्याओं का हल निकालने में मदद करें

कल्पना कीजिए आज खिलौने को लेकर दोनों भाई-बहनों के बीच झगड़ा हो गया है। इस स्थिति में सकारात्मक परवरिश के नियम आपको तुरंत हस्तक्षेप कर समाधान देने के स्थान पर यह कहने के लिए कहते हैं कि ‘ऐसा लगता है कि तुम दोनों को यह खिलौना चाहिए। क्या तुम कोई ऐसा रास्ता निकाल सकते हो जिससे तुम दोनों इससे खेल सको?’ इससे बच्चे संवाद और समाधान निकालने की कला सीखते हैं। दूसरे शब्दों में कहूँ तो सकारात्मक परवरिश बच्चों को स्वतंत्र रूप से सोचने और समस्याओं को स्वयं हल करने के लिए प्रेरित करती है। इतना ही नहीं यह उनमें विश्वास जगाती है कि अगर हल निकालते वक़्त अगर उन्हें आवश्यकता महसूस हो तो वे आपसे मार्गदर्शन प्राप्त कर सकें। इस तकनीक से बच्चों का आत्मविश्वास और चुनौतियों का सामना करने की क्षमता, दोनों बढ़ती है।


पाँचवाँ सिद्धांत : सकारात्मक व्यवहार का उदाहरण दें

बच्चे कही हुई बातों के स्थान पर आपको कार्य करता देख अधिक सीखते हैं। इसलिए उनके समक्ष सकारात्मक व्यवहार का उदाहरण प्रस्तुत करना महत्वपूर्ण है। अगर आप चाहते हैं कि बच्चे विनम्रता के साथ बात करें तो सबसे पहले आपको यह व्यवहार खुद अपनाना होगा। जब आप परिवार के सदस्यों, दोस्तों, या अजनबियों से मिलते हैं, तो शालीन भाषा का उपयोग करें और सम्मान दिखाएँ, ताकि बच्चा दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करना है, यह देख सके। ठीक इसी तरह अपने दैनिक जीवन में धैर्य, दया और ईमानदारी का अभ्यास करें ताकि बच्चे इन मूल्यों को आपको देखकर अपना सकें। याद रखियेगा, वे वही बनते हैं जो वे आपको करते हुए देखते हैं।


आज के लिए इतना ही दोस्तों, कल हम सकारात्मक परवरिश से मिलने वाले ५ लाभों पर चर्चा करेंगे।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

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