Nirmal Bhatnagar
प्रेम पाने का नहीं, देने का नाम है…
Oct 31, 2023
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, अकेलापन एक ऐसा भाव है जो सब कुछ होने के बाद भी इंसान को परेशान कर सकता है। काउन्सलिंग के दौरान मैंने महसूस किया है कि अकेलेपन के शिकार ज़्यादातर लोग अक्सर यह सोचते या महसूस करते हैं कि हमसे तो कोई प्रेम ही नहीं करता है। ऐसे लोगों से मैं एक ही प्रश्न करता हूँ, ‘क्या आप किसी से प्रेम करते हैं?’ जवाब में वे लोग अक्सर ‘हाँ’ कहते हैं, जिससे मैं सहमत नहीं रहता हूँ। इसकी मुख्य वजह प्रेम के विषय में मेरी अपनी यह सोच है कि जहाँ प्रेम होगा, वहाँ उसे वापस पाने की अपेक्षा नहीं होगी और जहाँ अपेक्षा नहीं होगी वहाँ तमाम नकारात्मक भाव नहीं होंगे और जहाँ नकारात्मक भाव नहीं होंगे वहाँ निराशा भी नहीं होगी। इसीलिए मैं कहता हूँ लोग अपने अंतर्मन में प्रेम नहीं, प्रेम के नाम का अहंकार रखते हैं और प्रेम करने के नाटक को प्रेम समझते हैं। आपमें से कुछ लोगों को मेरी बात थोड़ी कटु और अतिशयोक्ति पूर्ण लग रही होगी। चलिये इसी बात को हम मशहूर संत राबिया के व्यक्तिगत अनुभव से समझने का प्रयास करते हैं।
एक धार्मिक पुस्तक में ‘शैतान से घृणा करो, प्रेम नहीं!’ पढ़ते ही मशहूर संत राबिया उलझन में पड़ गई। काफ़ी देर तक इस विषय पर विचार करने के बाद उन्होंने उस लाईन को काट दिया। कुछ दिन बात उनसे मिलने आए संत ने वही पुस्तक पढ़ना शुरू कर दी और उस काटे हुए वाक्य को देखते हुए बोले, ‘लगता है यह पुस्तक की लाईन किसी नास्तिक के हाथ लग गई थी, जिसने इस लाईन को काट दिया है।’ संत की प्रतिक्रिया सुनकर राबिया मुस्कुराई और बोली, ‘यह लाइन तो मैंने ही काटी है।’ राबिया का जवाब सुनते ही संत दुविधा में पड़ गए और बोले, ‘आप तो इतनी महान संत हैं, आप ऐसा कैसे सोच सकती हैं?’ प्रश्न सुनते ही राबिया एकदम गंभीर स्वर में बोली, ‘पहले मैं भी आप ही की तरह सोचती थी कि शैतान से तो घृणा ही की जा सकती है, प्रेम नहीं। इसकी मुख्य वजह प्रेम की समझ ना होना थी। जब से प्रेम को समझा है, तब से बड़ी मुश्किल में हूँ कि घृणा किससे करूँ क्योंकि प्रेम किया नहीं जाता, वह तो अपने आप ही हो जाता है।’
इतना सुनते ही संत बोले, ‘क्या तुम यह कहना चाहती हो कि जो हमसे घृणा करते हैं, हम उनसे प्रेम करें।’ इस बार राबिया मुस्कुराई और बोली, ‘प्रेम का भाव अपने आप ही अंतर्मन में अंकुरित होता है और जब वह अंकुरित होता है तब अंतर्मन में घृणा के लिए कोई स्थान ही नहीं बचता। इसीलिए मेरा मानना है प्रेम लेने की नहीं, देने की चीज है। इसलिए यदि आप शैतान से भी प्रेम करोगे तो वह भी बीतते समय के साथ प्रेम का हाथ बढ़ाएगा।’
बात तो दोस्तों संत राबिया की एकदम सही है। इसी के आधार पर तो मैंने पूर्व में कहा था कि ऐसी सोच का कारण हमारे मन के अंदर प्रेम करने के अहंकार का होना है और यही वो कारण है, जिसकी वजह से संसार में नफरत और द्वेष बढ़ता हुआ नज़र आता है। वास्तव में दोस्तों प्रेम की परिभाषा ईश्वर की परिभाषा से अलग नहीं है। दोनों ही देते हैं, बदले में बिना कुछ लिए! जैसे, ईश्वर, माता-पिता, प्रकृति... यह सब हमसे कुछ पाने की आशा किए बिना अपना सर्वस्व देते हैं और उसके बाद एक बार फिर देने के लिए तैयार हो जाते हैं। अर्थात् जैसे ही हम अपनी पात्रता सिद्ध करते हैं, वे हमें और ज़्यादा देते हैं और जब वे हमें बार-बार पहले से ज़्यादा प्रेम देते हैं तब हम भी उनसे प्रेम करने लगते हैं। इसलिए दोस्तों, अगर प्रेम पाना है तो सबसे पहले ईश्वर, माता-पिता, प्रकृति आदि की तरह प्रेम देना शुरू करें।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
nirmalbhatnagar@dreamsachievers.com