Sep 28, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, प्रेम एक ऐसा भाव है जिसे शब्दों में व्यक्त करना जितना मुश्किल है, उससे कई गुना ज़्यादा मुश्किल इसे अभिव्यक्त करना और उससे भी कई गुना अधिक मुश्किल उसे समझना और निभाना है। आज के युग में इस स्थिति की मुख्य वजह मेरी नज़र में ‘मैं’ के भाव से ख़ुद को केंद्र में रखकर जीना है। अपनी बात को मैं पंडित श्री राम शर्मा ‘आचार्य’ द्वारा वर्णित एक क़िस्से से बताने का प्रयास करता हूँ।
सभी इष्ट देवों, वरिष्ठ ऋषि-मुनियों और भगवान का साथ पा नारद मुनि को अभिमान हो गया था कि मैं भगवान को सबसे ज़्यादा प्रेम करता हूँ। इसीलिए मुझे बार-बार उनका सानिध्य प्राप्त होता है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि भगवान तो सर्वव्यापी और सर्व ज्ञाता होते हैं, इसलिए उन्हें इस बात का भान तुरंत हो गया। चूँकि अभिमान अध्यात्म के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है, इसलिए भगवान ने नारद जी के अभिमान का निवारण करने का निर्णय लिया।
अगली बार नारद जी जब भगवान के पास पहुँचे तो भगवान ने उनसे धरती के भ्रमण पर साथ चलने के लिए कहा। इस भ्रमण के दौरान, जंगल से गुजरते वक्त भगवान और नारद जी को एक तपस्वी ब्राह्मण मिले, जो सूखे पत्ते खाकर तप कर रहे थे। ब्राह्मण शरीर से काफ़ी दुर्बल नज़र आ रहे थे लेकिन उसके बाद भी उन्होंने अपनी कमर में एक तलवार लटका रखी थी।
आम इंसानों सा रूप धरे नारद जी और भगवान के मन में स्वाभाविक तौर पर ब्राह्मण के इस रूप को जानने के जिज्ञासा उठी। वे बिना एक क्षण गँवाये उनके पास पहुँचे और उन्हें प्रणाम करते हुए बोले, ‘हे तपस्वी ब्राह्मण देवता, आपके पत्ते खाने और तलवार धारण करने की क्या वजह है?’ तपस्वी भगवान और नारद मुनि को प्रणाम करते हुए बोले, ‘मैं पत्ते इसलिए खाता हूँ ताकि मेरे भगवान की प्रजा को फल, सब्ज़ी, अन्न, दूध आदि वस्तुओं की कमी ना पड़े। मेरे खाने के कारण किसी जीव के आहार में कमी न पड़े। उन्हें सभी वस्तुएँ पर्याप्त मात्रा में मिलती रहें और तलवार मैंने इसलिए बांध रखी है कि कभी मेरा सामना भक्ति को कलंकित करने वाले तीन लोगों से हो जाये, तो मैं इस तलवार से उनका सिर, धड़ से अलग कर दूँ।
नारद जी तपस्वी का जवाब सुन हैरान थे, उसी पल उन्होंने तपस्वी से पूछा, ‘भक्ति को कलंकित करने वाले वे तीन लोग भला हैं कौन?’ तपस्वी बोले, ‘पहला तो अर्जुन, जिसने मेरे भगवान से अपने स्वार्थ के लिए रथ हँकवाया। दूसरी द्रौपदी, जिसके चीर को बढ़ाने के लिए मेरे भगवान को नंगे पैर दौड़ना पड़ा और तीसरे नारद, जिन्हें आत्मज्ञान पर संतोष नहीं है और जब देखो तब कुछ ना कुछ पूछकर मेरे भगवान का सिर खाता रहता है।’
तपस्वी ब्राह्मण की बात पूर्ण होते ही भगवान और नारद जी ने उन्हें प्रणाम किया और आगे बढ़ गए। रास्ते में भगवान ने नारद जी से कहा, ‘नारद! शायद अब तुम समझ गए होगे कि उच्च कोटि के प्रेम का क्या लक्षण है? उच्च कोटि का प्रेम करने वाला ना सिर्फ़ अपने प्रेमी को बल्कि उसके प्रिय जनों को भी अपने कारण कष्ट नहीं पहुँचने देता है और अपने सुख के लिए प्रेमी से किसी भी प्रकार की याचना नहीं करता है।’ भगवान की बातों को सुनने के पश्चात नारद जी ने अपने प्रेम की तुलना उस तपस्वी के प्रेम से करी तो उनका अभिमान चूर-चूर हो गया।
दोस्तों, वैसे तो अब इस विषय पर आगे कुछ भी चर्चा करने की आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि उपरोक्त कहानी अपने आप में ही सब कुछ कह देती है। लेकिन मैं फिर भी इतना कहूँगा कि प्रेम पाने का नहीं, देने का नाम है।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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