Nov 25, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
दोस्तों, समाज में जीवन मूल्यों, संस्कारों और जीवन जीने की प्राथमिकताओं में बड़ा बदलाव देखा जा रहा है। बदलाव के इस दौर में एक ओर जहाँ भौतिक सुख-सुविधाएं, पैसा, आदि बढ़ता नजर आ रहा है, वहीं दूसरी ओर मानवता, इंसानियत और नैतिकता कहीं ना कहीं कम होती नजर आ रही है। इतना ही नहीं आज की पीढ़ी में धैर्य, संतोष जैसे सकारात्मक मूल भावों की कमी भी साफ़ देखी जा सकती है। मेरी नजर में इस बदलाव के प्रमुख कारणों में से एक कारण बदलती सोच और आज की जीवनशैली है। अपनी बात को मैं आपको एक प्रसिद्ध लामा की आत्मकथा में से लिए गए एक किस्से से, उन्हीं के शब्दों में समझाने का प्रयास करता हूँ।
जब मैं 5 वर्ष का था, तब एक दिन रात्रि के समय पिता मेरे पास आए और बोले, ‘कल सुबह 4 बजे तुम्हें पढ़ने के लिए विद्यापीठ भेजा जाएगा। लेकिन याद रखना तुम्हें विदा करने के लिए ना तो मैं आऊंगा और ना ही तुम्हारी माँ क्योंकि तुम्हें जाता देख तुम्हारी माँ की आँखों में आँसू आ सकते हैं और रोती हुई माँ को छोड़कर जाना तुझे कमजोर बनायेगा और तेरा मन वापस लौटने का करेगा। हमारे परिवार में आज तक एक भी ऐसा मर्द पैदा नहीं हुआ है जो अपने लक्ष्य को बीच में छोड़कर लौटे। दूसरी बात मैं तुझे छोड़ने के लिए इसलिए नहीं आऊंगा क्योंकि अगर तूने घोड़े पर बैठने के बाद एक बार भी पीछे मुड़कर देख लिया, तो तू मेरा लड़का नहीं रहेगा और फिर इस घर का दरवाजा तेरे लिए हमेशा के लिए बंद हो जाएगा। नौकर तुझे सुबह विदा कर देंगे और उस वक्त याद रखना कि पीछे मुड़कर नहीं देखना है अन्यथा तुम्हारा इस घर से नाता हमेशा के लिए खत्म हो जायेगा।
सोच कर देखिए, क्या 5 वर्ष के बच्चे से ऐसी अपेक्षा उचित थी? खैर अगले दिन सुबह उस पाँच वर्षीय बच्चे को नौकरों द्वारा उठा दिया गया और उसे घोड़े पर बैठा कर विदा करते वक्त बताया गया, ‘बेटा! होशियारी से जाना और ऊपर से मोड़ तक दिखाई पड़ता है। इसलिए पीछे मुड़कर मत देखना। इस घर से सब बच्चे ऐसे ही विदा हुए हैं, लेकिन किसी ने भी पीछे मुड़कर नहीं देखा है और हाँ जिस विद्यापीठ में तुम पढने जा रहे हो वो साधारण नहीं है। वहाँ देश के श्रेष्ठतम लोग तैयार होते हैं। वहाँ तुम्हें प्रवेश के लिए एक कठिन परीक्षा का सामना करना पड़ेगा। इसलिए कोशिश करना कि तुम उस परीक्षा में असफल ना हो, अन्यथा तुम्हारे लिए इस घर के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो जाएँगे। 5 वर्ष के बच्चे के साथ ऐसी कठोरता!
उस लामा ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘मुझे नौकरों द्वारा उसे घोड़े पर बैठा दिया गया। मेरी आँखें आँसुओं से भर गई थी। लेकिन मैं पीछे मुड़कर नहीं देख सकता था; उस पिता को… उस घर को… जिसे छोड़ कर आज मैं अनजान जगह जा रहा हूँ। इतना छोटा हूँ लेकिन पलट कर देख नहीं सकता क्योंकि मेरे परिवार के किसी बच्चे ने ऐसा कभी नहीं किया है। इस बात की भी संभावना है कि पलट कर देखते वक्त पिता ने देख लिया तो हमेशा के लिए घर-परिवार से वंचित हो जाऊँगा। इसलिए कड़ी हिम्मत रख, आगे की ओर देखते हुए; बिना पलटे चलता रहा।’
पिता के व्यवहार से साफ़ समझा जा सकता है कि वे इस बच्चे के अंदर कोई विशेष भाव पैदा करना चाह रहे थे। शायद उसके अंदर कोई संकल्प जगाया जा रहा था। इसलिए ही प्रेम से भरे पिता इतना कठोर व्यवहार कर रहे थे। इसके विपरीत आजकल माता-पिता अपने प्रेम के कारण बच्चों के अंदर कोई संबल खड़ा नहीं कर पा रहे हैं। खैर वह 5 वर्ष का सामर्थ्य और हैसियत हीन बालक विद्यापीठ पहुँच गया। विद्यापीठ के प्रधान ने उसे कहा, ‘बेटा यहाँ की प्रवेश परीक्षा बड़ी कठिन है। जब तक मैं ना आऊँ तब तक तुम आँखें बिना खोले यहीं बैठे रहना, फिर चाहे कुछ भी हो जाये। यही तुम्हारी प्रवेश परीक्षा है। अगर तुमने आँखें खोली तो हम तुम्हें वापस लौटा देंगे क्योंकि जिसका ख़ुद पर कंट्रोल नहीं है, वह और क्या सीख सकेगा?’ 5 वर्ष के छोटे बच्चे को प्रधान द्वारा बता दिया गया कि अगर तुम परीक्षा में असफल हुए तो तुम यहाँ शिक्षा लेने लायक़ नहीं हो, फिर तुम वापस जाकर कुछ और काम करना।
कठोर प्रतीत होते नियमों और निर्देशों के साथ वह बच्चा दरवाजे पर आँख बंद कर बैठ गया। उसे मक्खियाँ परेशान कर रही थी; आते जाते बच्चे उसे छेड़ रहे थे याने कोई धक्का दे रहा था, तो कोई कंकड़ मार रहा था। लेकिन वह आँख खोलकर देख नहीं सकता था क्योंकि आँख खोल कर देखी तो प्रवेश नहीं मिलेगा और नौकरों ने बताया ही है कि प्रवेश में असफलता पर यह घर तुम्हारा नहीं। इन्हीं सब विचारों के बीच, गुरु का इंतज़ार करते हुए वो 5 साल का बच्चा एक-दो नहीं छह घंटे बैठा रहा।
छह घंटे बाद गुरु आए और बोले, ‘तेरी परीक्षा पूरी हुई। तू अंदर आ और हाँ तू संकल्पवान युवक बनेगा। जो बच्चे तुझे सता रहे थे, उन्हें मैंने भेजा था। उन्हें कहा गया था कि वो तुझे थोड़ा परेशान करें ताकि तेरे मन में आँख खोलने का विचार जागे। लेकिन तूने ऐसा किया नहीं। इस उम्र में 5-6 घंटे आँखें बंद करके बैठना बड़ी बात है। तेरे अंदर संकल्प शक्ति है, तू जो चाहे कर सकता है।’ इतना कह कर गुरु ने उसे गले लगाया।
उस लामा ने अपनी आत्मकथा में आगे लिखा है, ‘उस वक्त मुझे लगा कि मेरे साथ कठोर व्यवहार किया जा रहा है, लेकिन जीवन के अंत में, मैं उन लोगों के प्रति धन्यवाद से भरा हूँ, जो मेरे प्रति कठोर थे। उन सभी ने मेरे अंदर कुछ सोई हुई शक्तियों को जगाया।’
लेकिन आज के युग में हम ठीक इसका उल्टा कर रहे हैं। आज बच्चों को डाँटना, मारना, गलती पर सजा देना बिल्कुल बंद हो गया है। आज बच्चे को किसी तरह का शारीरिक दंड नहीं दिया जा सकता है। इसके विपरीत हमें तो उस बच्चे को बड़े सुरक्षित और सुविधाजनक वातावरण में लाड़-प्यार के साथ, बड़ा करना है। हमें उनकी पसंद-नापसंद को ध्यान में रखते हुए, उनकी इच्छा के अनुरूप, पूर्ण स्वतंत्रता के साथ जीवन जीने की आज़ादी देना है। मेरी नजर में तो यह सही नहीं है। थोड़ी कठोरता, थोड़ा दंड जरूरी है, ताकि उनके अंदर सोई हुई शक्तियों को जगाया जा सके। उनकी संकल्प शक्ति, इच्छा शक्ति को दृढ़ बनाया जा सके। उनके भीतर के क्रोध को सही दिशा दी जा सके, जैसा पहले जमाने में किया जाता था। इस विषय में आपके क्या विचार हैं बताइयेगा ज़रूर…
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
Comments