Nirmal Bhatnagar
बच्चों को सिखाना हो अनुशासन तो स्वयं रहें अनुशासित...
Apr 20, 2023
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, एजुकेशनल कंसलटेंट के रूप में कार्य करते हुए मुझे कई विद्यालयों में जाने और शिक्षकों, बच्चों और पालकों से बात करने का सौभाग्य मिलता है। इन मुलाक़ातों के दौरान मैंने अक्सर देखा है कि विद्यालय को पालकों से और पालकों को विद्यालय से शिकायत रहती है। इस मतभेद की वजह से बच्चे अक्सर दुविधापूर्ण मनःस्थिति और नज़रिए के साथ शिक्षा लेते हुए बड़े होते हैं। ठीक इसी तरह के मतभेद यह बच्चे अपने घर पर माता-पिता और दादा-दादी अथवा घर के अन्य बड़ों के बीच भी देखते हैं।
यह मतभेद बच्चों को भ्रम में रख, वैचारिक उलझनों के साथ बड़ा करता है। जिसकी वजह से वे समाज के प्रति बड़ा अजीब सा रूख अपना लेते हैं और नकारात्मक सामाजिक नज़रिए के साथ जीवन में आगे बढ़ते हैं। इसका असर दोस्तों, सिर्फ़ समाज पर ही नहीं बल्कि परिवार पर भी पड़ता है और बच्चे अक्सर बड़ों या शिक्षकों की बातों को नज़रंदाज़ कर अनुशासन रहित जीवन जीना शुरू कर देते हैं। वे भूल जाते हैं या यह कहना बेहतर होगा कि वे सीख ही नहीं पाते हैं कि अनुशासित जीवन, सदैव आदर्श जीवन भी होता है और इसी वजह से वे शिक्षकों और पालकों के निशाने पर आजाते हैं और लगभग रोज़ ही किसी ना किसी बात पर डाँट खाते हैं।
रोज़ डाँट खाना और उसके पीछे की वजह समझ भी ना पाना अक्सर इन बच्चों को अभिभावकों और शिक्षकों से दूर कर देता है। वे समझ ही नहीं पाते हैं कि जिस तरह सुनार से पिट कर सोना आभूषण बन जाता है और मूर्तिकार के छेनी-हथौड़े की मार पत्थर को भगवान बना देती है, ठीक उसी तरह माता-पिता या परिवार के बड़ों द्वारा डाँटा गया पुत्र, गुरु के द्वारा डाँटा गया शिष्य भी निखर कर हीरा बन जाता है। जी हाँ दोस्तों, बडों की डाँट ही जीवन को श्रेष्ठ एवं दिव्य बनाती है। याद रखिएगा, प्रहार ही जीवन में निखार का कारण बनते हैं।
अगर आप अपने बच्चों को सकारात्मक रूप से बड़ा कर एक ज़िम्मेदार नागरिक बनाना चाहते हैं तो सबसे पहले बड़ों और शिक्षकों अथवा विद्यालय के बीच के मतभेद को - ‘मन भेद’ बनने से रोकें और सबसे पहले यह स्वीकारें कि जिस तरह बच्चे को पैरों पर चलना सिखाने के लिए माता-पिता दोनों उसके छोटे हाथ पकड़कर एक दिशा में चले थे ठीक उसी तरह उसे जीवन में आगे बढ़ना सिखाने के लिए पालकों और विद्यालय को एक साथ आकर सामंजस्य के साथ चलते हुए जीवन मूल्य सिखाने होंगे, उसे ज्ञानी बनाना होगा।
जी हाँ साथियों, हमें बच्चों को सिखाना होगा कि बड़ों या शिक्षकों के द्वारा कहे गए कड़वे शब्द या डाँट असल में उस औषधि के समान है जो खाने में कड़वी लगती है, लेकिन हमारे स्वास्थ्य को अच्छा रखती है; उसे रोगों से मुक्त करती है। यह तभी सम्भव हो सकता है जब हम सभी बड़े याने पालक और शिक्षक स्वयं यह स्वीकार लें कि हमारा आपसी संवाद हमारे जीवन के लिए ही लाभकारी है। इसका उद्देश्य एक-दूसरे की कमी निकालना नहीं अपितु बच्चे के लालन-पालन के लिए आवश्यक एक दिशा तय करना है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो इसका मुख्य उद्देश्य सकारात्मक पेरेंटिंग का रोडमैप बनाना है। याद रखिएगा दोस्तों, आपसी सम्मान करना ही बच्चों को बड़ों का सम्मान करना सिखा सकता है और आज तक समाज में वही जीवन वंदनीय और अनुकरणीय बन सका है, जिसने छोटे, बड़े और अपने साथियों का सम्मान करना सीखा है।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर