May 2, 2023
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
दोस्तों, कई बार संसाधन की अधिकता भी ढेरों समस्याओं को जन्म दे देती है। शायद इसीलिए कहा गया है, 'अति सर्वत्र वर्जयेत्' अर्थात् अति को हर जगह छोड़ देना चाहिए या यूँ कहें यथासंभव अति से बचना चाहिए। आप भी सोच रहे होंगे कि मैं पहेलियों में क्यूँ बात कर रहा हूँ। तो चलिए अपनी बात को मैं पिछले अकादमिक वर्ष में स्कूल कंसलटेंसी के दौरान बच्चों के बदले व्यवहार को देख मिले अनुभव से करता हूँ।
कोविद के दौर में बच्चों की शिक्षा पर पड़ते ग़लत असर को देख, तुरंत ऑनलाइन शिक्षा के समाधान खोजे गए थे और इसी वजह से बच्चों के हाथ में समय से पहले मोबाइल, इंटरनेट और लैपटॉप पहुँच गए थे। शुरुआती दौर में तो सब कुछ ठीक लग रहा था और शिक्षक भी इस नई तकनीक पर अपना सर्वश्रेष्ठ देते हुए कार्य करने का प्रयास कर रहे थे। लेकिन कुछ ही दिनों बाद इस नई शिक्षा पद्धति के दुष्परिणाम सामने आने लगे। जैसे, बच्चे नेटवर्क अच्छा ना होने का बहाना बनाकर नींद में, सोते हुए ही क्लास अटेंड करने लगे; उन्होंने लिखना छोड़ दिया; कई बार समय पर असाइनमेंट जमा करने या अपने बच्चे को अच्छे नम्बर दिलाने के प्रयास में माता-पिता या परिवार के किसी बड़े सदस्य द्वारा कार्य करके दिया जाने लगा और मुझे एक उदाहरण तो ऐसा भी याद है, जिसमें परीक्षा में पालक द्वारा मदद की गई। सीधे शब्दों में कहूँ तो पालक द्वारा ही परीक्षा दे दी गई।
उपरोक्त सभी समस्याएँ तो ऑनलाइन शिक्षा के दौरान सामने आई लेकिन पिछले शैक्षिक सत्र के दौरान मैंने पाया कि समय से पहले गैजेट हाथ में आने की वजह से बच्चे समय से पहले ही काफ़ी बड़े हो गए। जिस गैजेट से उन्हें विद्यालयीन शिक्षा लेनी थी, उन्होंने उससे वह बातें सीख ली जो उनकी उम्र के हिसाब से सही नहीं थी। आज वे अपशब्दों का प्रयोग पहले से कहीं अधिक करने लगे हैं। इतना ही नहीं इसका असर उनके लिखने की क्षमता, एकाग्रता, कार्य करने की गति, शारीरिक क्षमता आदि पर भी स्पष्ट देखने को मिला है।
कुल मिलाकर संक्षेप में कहा जाए तो, जो तकनीक या गैजेट कोविद के दौरान शिक्षा की गति को बरकरार रखने के लिए उनके हाथ में दिए गए थे, उसके अत्यधिक उपयोग से आज वे डिजिटल एडिक्शन का शिकार हो, अपने मूल उद्देश्य से भटक गए हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अब कोविद के दौरान शिक्षा को गतिमान रखने के लिए अपनाया गया समाधान ही, समस्या बन गया है।
दोस्तों, अगर तकनीकी के इस दौर में हमें बच्चों को उपरोक्त समस्याओं से बचाना है, तो हमें उन्हें जीवन का सबसे सीधा और सरल सा नियम समझाना होगा कि ‘अनुशासन के बिना प्रगति सम्भव नहीं है।’ जिस तरह अनुशासन में बहकर ही एक नदी, सागर तक पहुँचकर, सागर बन जाती है। अनुशासन में बँधकर ही एक पौधा जमीन से उठकर, वृक्ष जैसी ऊँचाई को प्राप्त कर लेता है और अनुशासन में रहकर ही वायु फूलों की ख़ुशबू को अपने में समेटकर स्वयं भी सुगंधित हो जाती है व चारों दिशाओं को सुगंध से भर देती है। ठीक उसी तरह अगर वे अनुशासित जीवन जीना शुरू कर देंगे तो वे अपना सर्वांगीण विकास कर पाएँगे।
आप सोच रहे होंगे कि इतना तो मुझे भी पता है, पर यह होगा कैसे? तो मेरा जवाब है कि आप इंडिया रश सॉकर क्लब के तकनीकी निदेशक और पूर्व भारतीय फ़ुटबॉल खिलाड़ी जॉर्ज लॉरेन्स के द्वारा बताए गए समय प्रबंधन के सूत्र के आधार पर बच्चे का पालन-पोषण शुरू कर दीजिए। जिसके अनुसार आपको बच्चे के मात्र 8 घंटों को सही तरीके से प्रबंधित करना है क्योंकि प्रतिदिन 16 घंटों के उसके शेड्यूल अर्थात् 8 घंटे विद्यालय और 8 घंटे रात्रि विश्राम के, में बदलाव लाना सम्भव नहीं है। जॉर्ज के अनुसार आपको बचे हुए 8 घंटों में से प्रतिदिन 2 घंटे किसी खेल के लिए रखने चाहिए क्योंकि उनका मानना है कि खेल और शिक्षा साथ-साथ चलते हैं। इसके बाद 2 घंटे ट्युशन अथवा स्व-अध्ययन के लिए। इसके अतिरिक्त 2 घंटे का पारिवारिक समय होना चाहिए। जिसमें हमें बच्चों को पारिवारिक मूल्य, संस्कार, नैतिकता और इंसानियत जैसी चीज़ें सिखानी है और अंतिम 2 घंटे टी॰वी॰, हॉबी, खाने, व्यक्तिगत कार्य आदि याने फ़्री टाइम के रूप में देना चाहिए।
वैसे दोस्तों, बच्चों के सर्वांगीण विकास के इस सूत्र जिसमें हम बच्चों की भावनाओं, ज़रूरतों, ज़िम्मेदारियों और जुनून का बराबर ध्यान रखकर पालन-पोषण कर रहे है, का प्रयोग थोड़े से बदलाव के साथ हम बडे भी किसी भी तरह की अति से बचने के लिए कर सकते हैं। विचार करके देखिएगा।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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