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मानवता : आवरण नहीं आचरण है!!!

Writer's picture: Nirmal BhatnagarNirmal Bhatnagar

Feb 5, 2023

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

वैसे तो दोस्तों, बच्चों के साथ समय बिताना अपने आप में ही सुकून और शांति भरा अनुभव होता है क्योंकि बच्चे जमाने की तमाम नकारात्मकता से दूर एकदम साफ़ दिलवाले होते हैं। इतना ही नहीं वे हर पल वर्तमान में जीना जानते हैं। दिन में 5 बार वे कक्षा में अपने सहपाठी से ‘कट्टी’ करने के बाद, 6 बार दोस्ती करते हैं। बच्चों के इसी सरल, सहज और सच्चे स्वरूप के लिए ही शायद इन्हें भगवान का स्वरूप माना जाता है। अपनी बात को मैं हाल ही में घटी एक घटना से समझाने का प्रयास करता हूँ।


मध्यप्रदेश के एक शहर गाडरवारा के आदित्य प्ले स्कूल में मुझे बच्चों के एक कार्यक्रम में भाग लेने का मौक़ा मिला। इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य बच्चों ने सालभर में क्या सीखा था, वह अभिभावकों को बताना था। उक्त कार्यक्रम के दौरान एक 4 या 5 साल का छोटा सा बालक मेरे पास आया और मुझे स्वागत में मिले बुके को ध्यान से देखने लगा। बुके से ज़्यादा उसमें लगे एक विशेष फूल को लेकर उस बच्चे की जिज्ञासा ने अनायास ही मेरा ध्यान अपनी ओर खींच लिया। मैंने तुरंत उस बच्चे की ओर बुके बढ़ाते हुए कहा, ‘तुम यह बुके ले जा सकते हो!’ मेरे इतना कहते ही पहले बच्चे के चेहरे पर, उसके बाद उसके मुस्कुराते चेहरे को देखकर मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई। मैं कुछ समझ पाता उसके पहले ही मेरी आशा के विपरीत; वह बच्चा बुके वहीं टेबल पर छोड़, वहाँ से भाग गया।


मैं उसकी प्रतिक्रिया देख अचंभित था, मेरे मन में तुरंत एक प्रश्न कौंधा, ‘अगर उसे वह बुके इतना पसंद था तो वह उसे ले क्यों नहीं लिया?’ मैं विचारों की अबूझ पहेली को सुलझाने का प्रयास कर ही रहा था कि वह बच्चा अपने एक नन्हे दोस्त को लेकर वापस आया और इशारे में मुझसे बुके उसको देने के लिए कहने लगा। उस पल उस बच्चे के निश्चल भाव ने मेरी सारी समझ, भाव, आप कुछ भी उसे नाम दे दें, को कुछ पलों के लिए भुला दिया था। मैंने तुरंत वह बुके उस बच्चे के हवाले कर दिया। उस पल दूसरे बच्चे को बुके दिलाने की जो ख़ुशी उस बच्चे के चेहरे पर थी, वह देखते ही बनती थी।


दोस्तों, बच्चे ने जिस भाव का प्रदर्शन किया था, वही भाव तो इंसान को इंसान बनाता है। शायद उक्त कथन मेरी बात को पूरी तरह स्पष्ट नहीं करता है। आप ही सोच कर देखिए, वह छोटा बच्चा क्यों खुश हुआ था? क्योंकि उसने अपने दोस्त को उसकी पसंद की चीज़ दिलवा दी थी अर्थात् उस बच्चे की ख़ुशी अपने दोस्त की ख़ुशी में छुपी थी। याने वह खुद के स्वार्थ से ऊपर उठकर अपने मित्र के विषय में सोच रहा था। मेरी समझ से तो ‘मैं’ से ऊपर उठकर समाज के लिए या राष्ट्र के लिए जीना या दूसरों की ख़ुशी को प्राथमिकता देते हुए त्याग करना ही तो मानवता है।


जी हाँ साथियों, खुद से ऊपर उठकर समाज के लिए जीना ही तो असल साधना है, जिसका प्रदर्शन उस बच्चे ने किया था। याद रखिएगा, सबके भले के लिए ही शिव जी ने विष पिया था, इसीलिए वे महादेव बने। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो, ‘जो स्वयं के लिए जिये वो देव एवं जो सबको साथ लिए जिये वो महादेव है।’


उपरोक्त बात सुनने में सरल है लेकिन अपने स्वार्थ के ऊपर उठकर समाज, राष्ट्र को प्राथमिकता देना, मेरी नज़र में साधना से कम नहीं है क्योंकि इसके लिए आपको दूसरों के हित के लिए त्याग करना पड़ता है। जी हाँ साथियों, किसी चीज़ का प्रयोग करना छोड़ना, साधना नहीं होती है। यह तो किसी को परेशानी में देख अपनी वस्तु का त्याग कर उसके जीवन को बेहतर बनाने का नाम है। इंसानियत या मानवता कोई विज्ञान का सूत्र या पदार्थ नहीं है, जिसे हमें खोजना है। ना ही यह केवल बोलने, सुनने या चर्चा करने का विषय है। मेरी नज़र में तो यह जीवनशैली है, अर्थात् यह आवरण नहीं आचरण है, जिसके आधार पर जीकर हम इस दुनिया को बेहतर बना सकते हैं।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर


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