top of page

मैं नहीं, क्या सही है के अनुसार करें कार्य…

Writer: Trupti BhatnagarTrupti Bhatnagar

July 10, 2023

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, चर्चा या आपसी विचार मंथन आपको ‘क्या सही है’ जानने में मदद करता है और विवाद, ‘क्या सही है’ के स्थान पर, ‘सिर्फ़ मैं ही सही हूँ’ कि ओर ले जाता है। मेरी नज़र में इसके पीछे की मुख्य वजह ईगो याने अहंकार का होना है। हालाँकि मैंने अक्सर देखा है विवाद से कभी किसी का फ़ायदा नहीं हुआ है। याने, दोनों ही लोग जिनमें विवाद है, इसका शिकार बनते हैं और नुक़सान उठाते हैं। यह स्थिति ना सिर्फ़ मानसिक अपितु अक्सर भावनात्मक, वित्तीय, सामाजिक और भौतिक नुक़सान का कारण भी बनती है। अपनी बात को मैं हाल ही में घटे एक घटनाक्रम से समझाने का प्रयास करता हूँ।


बात कुछ दिन पूर्व की है, मध्यप्रदेश के ही एक शहर के विद्यालय का सीबीएसई एफिलीएशन के लिए कमेटी द्वारा इन्स्पेक्शन किया जाना था। कार्य की गम्भीरता, भविष्य की योजना और सुगमता को देखते हुए मैनेजमेंट ने एक विशेषज्ञ एजेन्सी की सेवाएँ भी ले रखी थी। विद्यालय के प्राचार्य और एजेन्सी द्वारा तैयारी पूर्ण हो जाने की सूचना देने के बाद मैंने विद्यालय मैनेजमेंट के साथ मिलकर डमी इन्स्पेक्शन करने का निर्णय लिया।


तय दिन, योजना के मुताबिक़, मैं अनुभवी प्राचार्यों की एक टीम के साथ विद्यालय पहुँचा और हमने एक-एक कर सभी काग़ज़ों और सुविधाओं को चेक करना प्रारम्भ किया। इस दौरान जहाँ भी हमें सुधार की गुंजाइश दिख रही थी, हमने प्राचार्य को बताना शुरू कर दिया। कुछ ही देर में हमारे पास सुधार की आवश्यकताओं वाली सूची तैयार थी जिस पर हमने प्राचार्य और एफिलीएशन विशेषज्ञ एजेन्सी से चर्चा करना शुरू किया। कुछ ही देर में मैंने महसूस किया कि चर्चा ‘क्या सही है’ के स्थान पर ‘मैं सही हूँ’ पर आ गई और उन दोनों ने एक दूसरे पर आरोप लगाना शुरू कर दिया। याने कार्य को सुविधाजनक रूप से पूर्ण करने के लिए ज़िम्मेदार दोनों लोग याने प्राचार्य और एजेन्सी अब खुलकर एक दूसरे के सामने आ गए थे और एक दूसरे की ग़लतियाँ या कमियाँ गिना रहे थे।


दोस्तों, ईगो की इस लड़ाई में सच्चाई और संस्था का हित अब बहुत पीछे छूट चुका था और उसका स्थान अहंकार ने ले लिया था, जिसके कारण मतभेद अब मन-भेद बनता जा रहा था। वे दोनों ही यह भूल चुके थे कि गलती भले ही किसी की भी क्यों ना हो नुक़सान निश्चित तौर पर संस्था के साथ-साथ उन दोनों का भी होना है। आप स्वयं सोच कर देखिए, अगर यही चर्चा एक सकारात्मक विचार मंथन का रूप लेती तो क्या होता? किसकी गलती है के स्थान पर क्या ग़लत है और यह कैसे सही होगा, पर निर्णय करते तो निश्चित तौर पर यह सभी के लिए लाभदायक होता। सबसे दुविधाजनक स्थिति में अगर कोई था तो वो थे मैनेजमेंट कमेटी के सदस्य। हक़ीक़त में तो उन्होंने दो ज्ञानियों को इस कार्य की ज़िम्मेदारी इसलिए दी थी ताकि वे सर्वश्रेष्ठ परिणाम पा सकें या दूसरे शब्दों में कहूँ तो चिंतामुक्त रहते हुए कार्य को अंजाम तक पहुँचा सकें। लेकिन यहाँ तो स्थिति ही उलट थी।


याद रखिएगा दोस्तों, हमारे द्वारा किए गए हर कार्य का अंतिम लक्ष्य सुख, शांति और संतोष के साथ सफल होना होता है। इस लक्ष्य को सिर्फ़ तब पाया जा सकता है, जब आप दिए गए काम को सही नज़रिए के साथ अंतिम परिणाम तक पहुँचा सकें। जैसे उपरोक्त उदाहरण में प्राचार्य और एजेन्सी दोनों ही तब सफल हो सकते थे, जब वे संस्था को सफल बना पाते। दूसरे शब्दों में कहूँ तो उन्हें अपने जीवन में शांति, सुख और संतोष सिर्फ़ और सिर्फ़ तब मिल सकता था जब वे क्या सही है के लिए काम करते और संस्था के लक्ष्य को ध्यान में रखकर काम करते। इसलिए दोस्तों, जीवन में एक उसूल ज़रूर बनाइएगा या इस विचारधारा को ज़रूर अपनाइएगा कि जिस भी संस्था या व्यक्ति के लिए हम कार्य करें, उसके हित को प्राथमिकता में रखें क्योंकि इसके बिना आप भी जीवन में अपने अंतिम लक्ष्य को पा नहीं पाएँगे।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर


 
 
 

Comments


bottom of page