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‘मैं’ नहीं ‘हम’ है महत्वपूर्ण…

  • Writer: Nirmal Bhatnagar
    Nirmal Bhatnagar
  • Nov 1, 2022
  • 3 min read

Nov 1, 2022

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, अक्सर लोग स्वयं को लीडर के रूप में देखना चाहते हैं लेकिन कार्य एक साधारण से व्यक्ति के रूप में करते हैं। हाल ही में ऐसा ही एक अनुभव मुझे नई दिल्ली में एक अंतरराष्ट्रीय कम्पनी के लिए किए गए अपने एक सेमिनार के दौरान हुआ। सेमिनार के पश्चात मुझे उस कम्पनी के विभिन्न विभागों के प्रमुखों के साथ बातचीत करने का मौक़ा मिला। इसी दौरान एक सज्जन मेरे पास आए और अपनी उपलब्धियों के बारे में बताने लगे। कुछ देर में मुझे एहसास हुआ कि उनका एक भी वाक्य ‘मैं’ के बिना पूरा नहीं हो रहा था। हालाँकि कुछ देर पहले ही उनके एक वरिष्ठ अधिकारी ने मुझे बताया था कि ना सिर्फ़ वे बल्कि उनकी पूरी टीम उनके व्यवहार से परेशान थी।


मैंने बात को बदलने या विराम देने के उद्देश्य से उन सज्जन से कहा, ‘आपको इतनी सफलताएँ मिल रही हैं तो निश्चित तौर पर इसमें आपकी टीम का भी बड़ा योगदान होगा और साथ ही वे सब आपसे बहुत खुश रहते होंगे।’ मेरी बात सुनते ही वे थोड़े चिंतित और गम्भीर स्वर में बोले, ‘सर, बस यही एक समस्या है। मेरी टीम मेरा साथ ही नहीं देती है। हमारे विभाग में टीम भावना की बहुत कमी है। अगर सम्भव हो तो मुझे इसका उपाय बताइएगा।’


मैंने उन सज्जन से कहा, ‘समय की कमी के कारण विस्तार में चर्चा करना तो सम्भव नहीं है, लेकिन मैं आपको एक कहानी सुनाता हूँ जो हमें समस्या की जड़ तक पहुँचने में मदद कर सकती है।’ बात कई साल पुरानी है शास्त्रों में निपुण, प्रसिद्ध और ज्ञानी संत श्री देवाचार्य संध्या के समय अपने शिष्यों और कुछ साथियों के साथ बगीचे में टहल रहे थे। संत की इस टोली में उनके एक शिष्य महेंद्रनाथ भी थे। महेंद्रनाथ वैसे बहुत ज्ञानी और सुलझे हुए व्यक्तित्व के मालिक थे। उनकी विशेषता बहुत कम शब्दों में गहरी बात कह जाना था।


एक दिन संध्या को टहलते समय महेंद्रनाथ के एक साथी ने स्वर्ग और नर्क पर बहस करते हुए कहा, ‘मित्रों, बताओ क्या मैं स्वर्ग जाऊँगा?’ कोई भी साथी कुछ कहता उससे पहले ही महेंद्रनाथ बोले, ‘जब मैं जाएगा तभी आप स्वर्ग जाओगे।” महेंद्रनाथ की बात उस मित्र को चुभ गई क्यूँकि उन्हें लगा कि महेंद्रनाथ यह अभिमान वश कह रहे हैं। जब महेंद्रनाथ द्वारा यही बात 2-3 बार और कह दी गई, तो मित्र ग़ुस्सा हो गया और अपने कई सारे समर्थकों को साथ ले गुरु श्री देवाचार्य के पास पहुँचा और महेंद्रनाथ की शिकायत करते हुए सारा क़िस्सा कह सुनाया। गुरु देवाचार्य जानते थे कि उनके प्रिय शिष्य महेन्द्रनाथ न केवल निरंकारी है बल्कि अल्प शब्दों में गंभीर ज्ञान की बातें बोलते है। उन्होंने महेंद्रनाथ को बुलाया और इस घटना के विषय में पूछा तो उन्होंने हाँ में सिर हिला कर घटना की पुष्टि कर दी।


गुरु ने मुस्कुराते हुए वही प्रश्न एक बार फिर महेंद्रनाथ से पूछा, ‘“अच्छा ये बताओ महेन्द्रनाथ! क्या तुम स्वर्ग जाओगे?” महेन्द्रनाथ ने गुरु के समक्ष दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा, “गुरुदेव! जब ‘मैं’ जायेगा, तभी तो ‘मैं’ स्वर्ग जा पाऊँगा।’ जवाब सुनते ही गुरु ने अन्य शिष्यों की आशा के विपरीत महेंद्रनाथ को आशीर्वाद दिया और बोले, ‘प्रिय शिष्यों, तुम महेंद्रनाथ की बात में छिपे गूढ़ अर्थ को समझ नहीं पाए। इनके कहने का तात्पर्य कुछ और था। महेंद्रनाथ तुम्हें बताने का प्रयास कर रहे थे कि जब ‘मैं’ अर्थात् अहंकार जाएगा, तभी तो हम स्वर्ग जाने के अधिकारी बन पाएँगे।’


कहानी पूरी होते ही मैंने कम्पनी के अधिकारी की ओर देखा और कहा, ‘वैसे तो इस कहानी ने सब कुछ ही कह दिया है लेकिन फिर भी मैं एक बार दोहराना चाहूँगा कि जब कार्य सम्बन्धी उपलब्धियों मैं ‘मैं’ की जगह हम आ जाएगा तब टीम अपने आप आपके साथ आ जाएगी। याद रखिएगा, जब-जब आपके मन में यह बातें आएंगी कि मैंने ऐसा किया, मैंने इतने पुण्य या कार्य किये या सब कुछ मेरी वजह से हो रहा है, उस स्थिति में टीम और टीम भावना या बड़े लक्ष्यों को पाने के बारे में सोचना भी गलत है…’


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

 
 
 

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