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यात्रा साधना से आराधना की…

  • Writer: Nirmal Bhatnagar
    Nirmal Bhatnagar
  • Aug 22, 2024
  • 3 min read

Aug 22, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, एक बच्चे के तौर पर हमें शुरू से सिखाया जाता है कि ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ रख कर ही जीवन को सही तरीक़े से जिया जा सकता है। लेकिन जब यह बात हमें सिखाई जाती है ठीक उसी वक्त हमें जीवन में ‘सफल’ याने ‘ढेर सारा पैसे कमाने वाला’ बनने के विषय में भी बताया जाता है, जो बीतते समय के साथ इंसान को लालची और लोभी बनाने लगता है। अब आप स्वयं सोचिए क्या लोभी और लालची रहते हुए उच्च विचार रखे जा सकते हैं? सादा जीवन जिया जा सकता है? शायद नहीं! ऐसी स्थिति में मन में सवाल आता है कि किया क्या जाए?


मेरी नज़र में तो इसका जवाब बड़ा सीधा सा है, शिक्षा को कुछ पाने का साधन मानने की जगह, ख़ुद को खोजने के रास्ते के रूप में देखना चाहिए और बच्चों को शुरू से बताना चाहिये कि लोभ, लालच, पिता या परिवार के माल पर मौज और मज़ा उड़ाते हुए सफल होना संभव नहीं है। इसके लिए तो हमें उसी रास्ते को अपनाना होगा, जो अन्य सफल लोगों ने या हमारे गुरुओं और महापुरुषों ने अपनाया था। दूसरे शब्दों में कहूँ तो जिस तरह सफल लोगों, महापुरुषों और गुरुओं ने ख़ुद को जिस तरह तपाया है, ठीक उसी तरह हम भी ख़ुद को तपाकर सफल और महान बना सकते हैं।


जी हाँ दोस्तों, सादे जीवन का अर्थ है कसा हुआ जीवन और हमारे गुरुओं, दुनिया में हुए सभी महापुरुषों और सफल लोगों ने ख़ुद को नियमों और उसूलों में कसकर ख़ुद को तपाया है और उसी वजह से वे जीवन में ऊँचे उठें हैं, महान बने हैं। विश्वास ना हो, तो आप किसी भी महापुरुष का इतिहास उठाकर पढ़ लें, आप पायेंगे कि उन्होंने ख़ुद को तपाने के बाद ही जीवन में वर्चस्व पाया है।


अगर आप गहराई से इस विषय पर सोचेंगे तो पायेंगे कि यही प्रकृति का नियम है। तलवार की धार भी पत्थर पर घिसने के बाद ही तेज होती है। अगर हम भी प्रगति चाहते हैं, तो हमें भी स्वयं को घिसना होगा; तपाना होगा। यक़ीन मानियेगा, मैंने तो अपने जीवन में इसी सूत्र को अपनाया है और आज जहाँ भी हूँ, वहाँ तक इसी से पहुँचा हूँ और इसी सूत्र पर काम करते हुए अपने अगले लक्ष्यों को भी पाऊँगा। इसके बिना ख़ुद को, ख़ुद के लिए और समाज के लिए उपयोगी बनाने का कोई दूसरा रास्ता नहीं है। हमारे जैसे कर्मयोगियों के लिए ख़ुद को मेहनत की आग में तपाने के अलावा कुछ और आराधना हो ही नहीं सकती है।


आप स्वयं सोच कर देखियेगा, शिक्षा से दूसरों के सामने हाथ फैलाकर माँगने की विद्या देना बेहतर है या फिर इसी याने शिक्षा की मदद से देने लायक़ बनना। मेरी नज़र में तो देने लायक़ बनना क्योंकि जब आप देने लायक़ बनते हैं, तब आप ख़ुद के साथ दूसरों की ज़िंदगी को भी बेहतर बनाते हैं। इसे आप साधना से आराधना की यात्रा कह सकते हैं। अगर इसे मैं थोड़ा विस्तार से बताऊँ तो शिक्षा की साधना से आपने पहले ख़ुद के अंदर छिपे विशेष गुण को खोजा, फिर इस गुण से आपने समाज को बेहतर बनाया याने अपने गुणों या अपनी विशेषताओं से समाज को बेहतर बनाना ही कर्म योगियों की साधना है। इसीलिए समाज हित में काम करने वाले समाजसेवियों, जन कल्याण के काम करने वाले लोगों के कार्यों को आराधना के समकक्ष माना गया है। अर्थात् सेवा धर्म निभाते हुए ही कर्म योगी अपनी आराधना कर लेते हैं।


इसके लिए हमें जोड़-तोड़ कर अपने लक्ष्यों को पाने, माँगकर जीवन में आगे बढ़ने की विद्या याने छल-कपट, चालाकी आदि सिखाने के स्थान पर सीधे-सीधे ‘बो कर काटने’ के सिद्धांत को बच्चों को सिखाना होगा। हमें उन्हें बताना होगा कि कोई भी चीज फोकट में नहीं मिलती है। इसलिए शिक्षा से ख़ुद को खोजो और फिर ख़ुद को बेहतर बनाओ और अंत में समाज को बेहतर बनाने के लिए अपना सर्वस्व दो। यह बिलकुल वैसा ही होगा जैसे हम एक बीज को बोकर, उससे हज़ारों बीज उगा लेते हैं और फिर उस उपज से ख़ुद के जीवन को आगे बढ़ाते हैं। सीधे शब्दों में कहूँ, तो हमें माँगने की विद्या छोड़कर बोने और काटने की विद्या को ना सिर्फ़ सीखना होगा, बल्कि उसे समाज को सिखाना भी होगा। याद रखियेगा, जटिल सोच, आसान जीवन नहीं बनती है।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

 
 
 

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