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Writer's pictureNirmal Bhatnagar

याद रखें, आप यहाँ हमेशा के लिए नहीं आए हैं…

Oct 30, 2022

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, अगर आपका मन साफ़ और उद्देश्य नीति अनुसार हो तो ईश्वर या प्रकृति भी आपका साथ देने लगती है। हो सकता है आपको मेरा यह विचार थोड़ा अस्पष्ट या अधूरा लग रहा हो। इसे मैं आपको एक उदाहरण के साथ विस्तार से बताने का प्रयास करता हूँ। अक्सर हम सभी अपनी अपेक्षाओं, इच्छाओं अथवा योजनाओं की पूर्ति ना होने की वजह से स्वयं को दुविधा में फँसा हुआ पाते हैं। पिछले कुछ दिनों से मैं स्वयं ऐसी ही किसी दुविधा में फँसा हुआ था जिसका व्यापक असर मेरे मन, मेरे कार्य, मेरे व्यवहार आदि सभी पर स्पष्ट तौर पर नज़र आ रहा था। हालाँकि मैं अपनी स्थिति को भली भाँति समझ पा रहा था लेकिन उसके बाद भी बार-बार विचारों के चक्रव्यूह में फँस रहा था। तभी किसी ने मुझे एक ऐसी कहानी भेज दी जिसने मुझे आगे की राह स्पष्ट दिखा दी। इसीलिए मैंने पूर्व में आपसे कहा था, ‘अगर आपका मन साफ़ और उद्देश्य नीति अनुसार हो, तो ईश्वर या प्रकृति भी आपको सही रास्ता दिखाने लगती है।’


चलिए इसे हम एक उदाहरण से समझाने का प्रयास करते हैं। बात कई सौ साल पुरानी है, जब मिथिला के राजा जनक हुआ करते थे। राजा जनक अपनी न्यायप्रियता, राज कुशलता और लोगों को यथायोग्य सम्मान देने के लिए जाने जाते थे। उनके राज्य में ब्रह्मकेतु नाम का एक बहुत ही विद्वान, ज्ञानी व्यक्ति रहा करता था। पूरा राज्य ब्रह्मकेतु के ज्ञान और बुद्धिमत्ता का क़ायल था।


एक बार ब्रह्मकेतु ने लोगों की आशा और अपने आचरण के विपरीत जाकर राज्य के धनी व्यक्ति के यहाँ चोरी कर ली। हालाँकि उस धनी व्यक्ति ने ब्रह्मकेतु को चोरी करते हुए देख लिया था लेकिन फिर भी उनके ज्ञान और सम्मान को देखते हुए उसे नज़रंदाज़ कर दिया। लेकिन जब यह घटना दो-तीन बार और घट गई तो सेठ ब्रह्मकेतु की शिकायत लेकर राज दरबार में पहुँच गया और मय साक्ष्य सारी बात राजा को कह सुनाई।


कुछ देर विचारने के पश्चात राजा जनक ब्रह्मकेतु से बोले, ‘तुमने चोरी की है और दंड विधान के हिसाब से हम तुम्हारे दोनों हाथ काटने का आदेश दे सकते हैं, परंतु तुम विद्वान हो, इसलिए मैं तुम्हें राज्य से बाहर निकल जाने का दंड देता हूँ।’ दंड सुनते ही ब्रह्मकेतु जोर से हंसने लगे और बोले, ‘महाराज, गुस्ताखी माफ़ कीजिएगा दंड स्वीकारने से पहले क्या मैं आपसे पूछ सकता हूँ कि क्या यह राज्य आपका है?’ राजा जनक को यह प्रश्न बड़ा बेतुका सा लगा। लेकिन यह प्रश्न उनसे ब्रह्मकेतु जेसे विद्वान व्यक्ति ने पूछा था इसलिए जवाब देते हुए वे बोले, ‘बेशक, यह राज्य मुझे मेरे पिता से प्राप्त हुआ है।’


ब्रह्मकेतु ने गम्भीर मुद्रा धारण करते हुए कहा, ‘अच्छा, इसका अर्थ हुआ यह राज्य आपके पिता का था।’ राजा जनक ने कहा, ‘राज्य मेरे दादा का था।’ राजा जनक का जवाब सुन ब्रह्मकेतु बोले, ‘और जब आप नहीं रहेंगे तब इस राज्य का क्या होगा?’ अब तक राजा जनक भी गम्भीर हो गए और बोले, ‘तब यह मेरे पुत्र का हो जाएगा।’


ब्रह्मकेतु ने हल्की मुस्कुराहट के साथ कहा, ‘राजन!, यह राज्य पहले आपके पिता का था और उससे पहले आपके दादा का। अगर यह उनका था तो इसे उनके साथ ही समाप्त या खत्म हो जाना था, पर ऐसा हुआ नहीं। उसके बाद आपके पिता ने मान लिया कि अब यह राज्य उनका है, पर यह राज्य उनके साथ भी खत्म या समाप्त नहीं हुआ। अब जब आप नहीं रहेंगे तो क्या यह राज्य आपका रहेगा?’ ब्रह्मकेतु का गम्भीर प्रश्न सुन राजा जनक सोच में पड़ गए, उनके मन में तरह-तरह के विचार आ रहे थे जैसे, ‘मिथिला राज्य से मेरा क्या सम्बंध है? क्या मैं वाक़ई इसे अपना राज्य कह सकता हूँ?’ इन्हीं विचारों के दौरान राजा जनक को अपने शरीर का भान हुआ, वे उसे निहारते हुए सोचने लगे, ‘क्या यह हाथ-पाँव, आँख-नाक, कान आदि मेरे अपने हैं? अथवा क्या संसार की कोई वस्तु मेरी अपनी है? मैं कौन हूँ?’ कुछ देर बाद उन्हें एहसास हुआ, जब यह शरीर मेरा अपना नहीं है तो मैं इस राज्य को अपना कैसे मान सकता हूँ?’ यह विचार आते ही राजा जनक सिंहासन से नीचे उतर गए और बड़े ही विनम्र भाव से बोले, ‘महान ब्राह्मण ब्रह्मकेतु जी, धन्यवाद आपने मेरी आँखें खोल दी। यह राज्य तो क्या, यह शरीर भी मेरा नहीं है। यह राज्य आप सब का है, आप लोग जहाँ चाहें विचरण कर सकते हैं।’


राजा जनक का जवाब सुनते ही ब्रह्मकेतु का रूप बदल गया और वे बोले, ‘राजन, चोरी गई सारी चीज़ें अपनी जगह सुरक्षित हैं। मैंने तो आपको सांसारिक बंधनों से मुक्त करने के लिए ही यह स्वाँग भरा था। मैं धर्म हूँ और अब मेरा लक्ष्य पूर्ण हो गया है, इसलिए अब मैं चलता हूँ।’ इतना कहकर धर्म अर्थात् ब्रह्मकेतु वहाँ से चले गए।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

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