Apr 2, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
दोस्तों, कमियाँ देखना, कमियाँ खोजना और शिकायती लहजे में जीवन जीना; मेरी नज़र में व्यक्तिगत चुनाव का मामला है। जी हाँ दोस्तों, प्रतिक्रिया देने के पहले इस पर थोड़ा गहन विचार कर देखियेगा। मैंने कंसलटेंट, कोच या ट्रेनर के रूप में कार्य करते वक़्त ज़्यादातर मौक़ों पर यही महसूस किया है। अपनी बात को मैं आपको एक घटना से समझाने का प्रयास करता हूँ।मध्यप्रदेश के एक विद्यालय में प्राचार्य ने पिछले सत्र में कक्षा ग्यारहवीं को पढ़ाने वाले विज्ञान के एक शिक्षक को बुलाया और उनसे नवीन सत्र में कक्षा नवीं और दसवीं को पढ़ाने का आग्रह किया। प्राचार्य की बात सुनते ही शिक्षक थोड़े नाराज़ हो गये और ग़ुस्से में प्राचार्य को दोष देते हुए वहाँ से जाने लगे। असल में वे इसे अपना डिमोशन मान रहे थे। प्राचार्य ने उन्हें उस वक़्त सिर्फ़ इतना कहा, ‘सर, अभी आप रियेक्ट कर रहे हैं इसलिए मैं इस बात को यहीं विराम दे रहा हूँ। जब आप शांत होंगे तब हम इसपर विस्तार से चर्चा करेंगे।’
विज्ञान के शिक्षक ने प्राचार्य के इस कदम को अपनी तौहीन माना और उनकी कही बात को नज़रंदाज़ करते हुए तत्काल अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया। प्राचार्य ने उस वक़्त समझदारी का परिचय देते हुए उनके इस्तीफ़े को अपनी टेबल के दराज में यह सोचकर रख दिया कि दो-तीन दिनों में जब शिक्षक शांत होंगे तब उनसे बात कर मामले को सुलझा लेंगे। इसके विपरीत विज्ञान शिक्षक ने दो दिनों बाद विद्यालय के सभी व्हाट्सएप ग्रुपों को छोड़ दिया और विद्यालय की पॉलिसी, प्राचार्य के व्यवहार, उनके टैलेंट आदि की अनदेखी जैसे मुद्दों को आधार बनाकर, सहकर्मियों और परिचितों के बीच में चर्चा करना शुरू कर दिया, जो जल्द ही विद्यालय प्रबंधन को पता चल गया। जिसके फलस्वरूप विज्ञान शिक्षक को इस माह की २० तारीख़ को उनके पद से मुक्त कर दिया गया।
दोस्तों, हो सकता है आप में से कुछ लोगों को लग रहा होगा कि मैं एक तरफ़ा बातें कर रहा हूँ और प्राचार्य का पक्ष ले रहा हूँ, तो आगे बढ़ने से पहले मैं आपको बता दूँ कि ऐसा बिलकुल भी नहीं है। असल मैं विज्ञान के शिक्षक के विषय ज्ञान, बच्चों से अच्छे बर्ताव, समझाने की शैली आदि को देखते हुए बच्चों की नींव को मज़बूत बनाने के उद्देश्य से प्राचार्य ने कक्षा नवीं और दसवीं के कमजोर बच्चों के एक समूह को कुछ माह तक उनसे पढ़वाने का निर्णय लिया था। इतना ही नहीं, इस निर्णय को लेने के पूर्व उन्होंने विद्यालय प्रबंधन को भी इन शिक्षक की अच्छाइयों के बारे में बताते हुए राज़ी करा था और साथ ही इस वर्ष वे उन्हें अतिरिक्त वेतन वृद्धि देने पर भी विचार कर रहे थे। लेकिन उन शिक्षक के रिएक्शन ने उनसे यह मौक़ा छीन लिया था।
इसीलिए दोस्तों, मैं हमेशा कहता हूँ परिस्थिति कितनी भी विपरीत क्यों ना हो, परेशानी कितनी भी बड़ी क्यों ना हो, समस्याओं की संख्या कुछ भी क्यों ना हो, कभी रिएक्ट ना करें, हमेशा रि-एक्ट करें। अर्थात् कभी भी, किसी भी स्थिति में तत्काल प्रतिक्रिया देने के स्थान पर उस विषय पर सभी संबंधित लोगों से खुलकर चर्चा करें, उस पर मंथन करें और फिर शांत दिमाग़ से निर्णय लेते हुए अपने अगले कदम उठाएँ। इसके बिना साथियों, हर हाल में सही निर्णय लेना संभव नहीं होगा और आप सच्चाई तक पहुँचे बिना ही दोष देते हुए जीवन में आगे बढ़ेंगे। इसीलिए मैंने पूर्व में कहा था, ‘कमियाँ देखना, कमियाँ खोजना और शिकायती लहजे में जीवन जीना मेरी नज़र में व्यक्तिगत चुनाव का मामला है।’
आप स्वयं सोच कर देखिए, यदि उक्त शिक्षक ने तत्काल प्रतिक्रिया देने के स्थान पर अगर प्रचार से खुलकर इस विषय पर चर्चा करी होती; स्थितियों का आकलन अपनी सोच के स्थान पर सच्चाई को आधार बनाकर किया होता, तो क्या होता? निश्चित तौर पर आज वे उसी विद्यालय में नई ज़िम्मेदारियों के साथ अपनी अच्छी छवि बनाकर खुश रहते हुए कार्य कर रही होती, ना की नकारात्मक विचारों के साथ अपना जीवन जी रही होती। इसीलिए कहा जाता है दोस्तों, अपनी क़िस्मत आप बनाते हैं फिर चाहे वो अच्छी हो या बुरी क्योंकि ईश्वर द्वारा मौक़ा दिए जाने पर बुरा भी आप चुनते हैं और अच्छा भी!
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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