Sep 10, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
दोस्तों, शारीरिक विकलांगता से ज़्यादा ख़तरनाक मानसिक विकलांगता है। जी हाँ दोस्तों, इस दुनिया में कई लोग सब कुछ होते हुए भी दोष देते हुए जीवन जीते हैं और कुछ लोग बड़ी से बड़ी कमियों को भी नज़रंदाज़ करते हुए अपने जीवन को पूर्णता के स्तर तक जीकर इस दुनिया को बेहतर बना देते हैं। अपनी बात को मैं आपको एक कहानी से बताने का प्रयास करता हूँ।
बात कई साल पुरानी है, गाँव के बाहरी इलाक़े में रमेश नाम का एक बहुत ही खुद्दार व्यक्ति रहता था, जो जन्म से ही अंधा था। लेकिन रमेश ने कभी इसे अपनी कमी नहीं बनने दिया। वैसे उसके इस नज़रिये के पीछे उसके माता-पिता की दी गई शिक्षा और लालन-पालन का हाथ था। उन्होंने हमेशा रमेश को सिखाया कि तुम्हारे पास भले ही आँखों की रोशनी ना हो, लेकिन उसके बाद भी तुम पूरी तरह आत्मनिर्भर बन सकते हो, इसके लिए तुम्हें अपने मन को साधना होगा और अदम्य इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा। इसी वजह से अंधा होते हुए भी रमेश कभी अपनी कमियों पर नहीं रोया, उसने तो बस हमेशा ईश्वर ने जो दिया है उस पर फ़ख़्र किया और उसका सौ प्रतिशत इस्तेमाल किया।
रमेश का गाँव प्राकृतिक रूप से बहुत सुंदर था, जो हरी-भरी फसलें, कल-कल करती नदियाँ और चारों ओर से ख़ुशबू बिखेरते फूलों की बगियों से भरा था। गाँव के बाहरी इलाक़े में मौजूद पहाड़ इसके सौंदर्य को और चार चाँद लगा दिया करते थे। रमेश अक्सर सुबह-सुबह घूमते हुए नदी के पास जाता था और उसके किनारे पर बैठ कर उसके सौंदर्य को मन की आँखों से महसूस किया करता था। इसी आधार पर उसने इस दुनिया की बहुत सुंदर तस्वीर अपनी आँखों में बना ली थी।
एक दिन रमेश को गाँव में एक नाटक मंडली के आने के विषय में पता चला, जो ‘अंतर्ज्ञान की आँखें’ नामक एक विशेष नाटक का प्रदर्शन करने वाले थे। रमेश ने अपने मित्रों के साथ इस नाटक को देखने जाने का निर्णय लिया। हालाँकि वह जानता था कि वह उसे देख नहीं पाएगा लेकिन फिर भी उसने इसमें रुचि ली और नाटक के दौरान, उसके हर संवाद, संगीत के हर सुर, और हर आवाज़ को ध्यान से सुना। जैसे-जैसे नाटक आगे बढ़ा, रमेश ने महसूस किया कि इस नाटक का नायक बिलकुल उसी की तरह है जो अपनी अंतरात्मा की आँख से इस दुनिया को देखता है।
असल में इस नाटक की कहानी एक अंधे व्यक्ति पर आधारित थी, जो अपनी आंतरिक दृष्टि के माध्यम से दुनिया को देखता और समझता था। इसलिए हर पल वह उस नाटक के मुख्य पात्र को अपने अंदर देख रहा था। नाटक के पूर्ण होने के बाद रमेश पूरी नाटक मंडली से मिला और इस नाटक के विषय में अपनी प्रतिक्रिया उनके समक्ष रखी। इस प्रतिक्रिया और रमेश के जीवन के हर पहलू को जानने के बाद नाटक मंडली के प्रमुख ने रमेश को प्रस्ताव दिया कि वह अगले नाटक में प्रमुख भूमिका निभाए। रमेश पहले तो हिचकिचाया, लेकिन फिर उसने इस अवसर को एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया और नाटक की तैयारी करना शुरू कर दिया। जैसे संवादों को याद करना, चरित्र में डूबना, भाव प्रकट करना, इत्यादि।
जल्द ही वह दिन भी आ गया जिस दिन रमेश द्वारा अभिनीत नाटक का पहला दिन था। रमेश ने मंच पर आते ही अपनी भूमिका निभानी शुरू की, तो उसकी आत्मा की रोशनी से पूरा मंच जगमगा उठा। उसके भावों और संवादों ने हर किसी के दिल को छू लिया। नाटक के अंत में दर्शकों ने खड़े होकर तालियों की गड़गड़ाहट के साथ रमेश की भूमिका को सराहा और उसे एहसास कराया कि अंधापन उसकी कमजोरी नहीं, ताक़त है। उस दिन के बाद, रमेश गाँव में ही नहीं, बल्कि दूर-दूर तक मशहूर हो गया। उसकी कहानी लोगों के लिए प्रेरणा बन गई और उसने सभी को यह सिखाया कि सच्ची दृष्टि आँखों में नहीं, बल्कि दिल में होती है।
इसीलिए दोस्तों, मैंने लेख की शुरुआत में कहा था, ‘विकलांगता शारीरिक नहीं, मानसिक होती है।’ क्योंकि शारीरिक विकलांगता को स्वीकार कर, ईश्वर प्रदत्त दूसरी क्षमताओं का विकास किया जा सकता है लेकिन अगर मानसिक रूप से उसे ना स्वीकारा जाये, तो सब कुछ होने के बाद भी इंसान जीवन में ज्यादा कुछ विशेष नहीं कर पाता है।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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