Nirmal Bhatnagar
शारीरिक से ज़्यादा मानसिक आलस्य है नुक़सानदायक…
Oct 10, 2023
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, वैसे तो हमारे मुहावरे या लोकोक्तियाँ अपने आप में ही सब कुछ कह देती है लेकिन अक्सर उन्हें सामान्य शब्दावली का हिस्सा मान उसे नज़रंदाज़ कर दिया जाता है। जैसे, ‘मन के हारे, हार है और मन के जीते, जीत!’ अपने आप में ही पूर्ण और स्पष्ट संदेश अपने में समेटे हुए है लेकिन उसके बाद भी आपको लोग छोटी-मोटी असफलताओं को जीवन का अंतिम परिणाम मान, हारी अवस्था में दिख जाएँगे। मेरी नज़र में इसकी मुख्य वजह मानसिक तौर पर मज़बूत ना होना है। जी हाँ दोस्तों, जब तक आप जीवन को सही नज़रिए से देखना और जीना शुरू नहीं कर देते है तब तक विभिन्न क्षेत्रों में हार एक स्वाभाविक परिणाम है।
जी हाँ दोस्तों, सही पढ़ा आपने हार के पीछे की मुख्य वजह सामान्यतः जीवन के प्रति हमारे नज़रिए पर आधारित रहती है। अपनी बात को मैं आपको एक उदाहरण से समझाने का प्रयास करता हूँ। हाल ही में एक सज्जन अपने बेटे को मेरे पास काउन्सलिंग के लिए लेकर आए। बेटे ने कक्षा दसवीं 97% से उत्तीर्ण करी थी और उसका लक्ष्य आईआईटी में प्रवेश पाना था। अपने इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए उसने इंदौर के एक प्रसिद्ध कोचिंग संस्थान में प्रवेश लिया। जहाँ उसे मेरिट के आधार पर १००% स्कॉलरशिप मिल गई। शुरुआती दिनों में तो सब कुछ ठीक चला, लेकिन जल्द ही इंदौरी चकाचौंध, आलस्य, काम टालने की प्रवृति आदि के कारण वह कक्षा में पिछड़ने लगा और साल के अंत तक उसे एहसास हो गया कि अब उसके लिए आगे की राह आसान नहीं होगी। यह एहसास होते ही उसने कोचिंग से लेकर परिवारवालों तक सभी को किसी ना किसी बहाने दोष देना शुरू कर दिया।
ख़ैर किसी तरह घर वालों ने उसे मना कर, दूसरी कोचिंग में प्रवेश दिलवाकर एक बार फिर से पढ़ाई से जोड़ने का प्रयास करा। लेकिन इस बार उस बच्चे ने कोचिंग और बारहवीं के शुरुआती दिनों में किसी ना किसी बहाने से छुट्टी लेना शुरू कर दिया। कभी वह ख़ुद को स्ट्रेस का तो कभी किसी और बीमारी का शिकार बताने लगा। इस बीच परिवार वालों ने बच्चे को उसके मनमाफिक माहौल देकर काफ़ी सामान्य करने का प्रयास करा। लेकिन काम टालने की प्रवृति, आलस्य आदि के कारण वह पढ़ाई से जी चुराता रहा, जिसका असर कोचिंग पर होने वाले टेस्ट में साफ़ नज़र आ रहा था। इतना ही नहीं, मैं अपने लक्ष्य को पाने के लिए बहुत मेहनत कर रहा हूँ, दिखाने के लिए उस युवा ने अपने गृहनगर और घर जाना भी बंद कर दिया था। इन प्रयासों में वह यह भी भूल गया था कि असल में वह दूसरों को नहीं ख़ुद को धोखे में रख रहा है; अपने वर्तमान को खोकर, भविष्य को मुश्किल बना रहा है।
अगर इस पूरे प्रकरण को मैं गहराई में उतर कर देखूँ तो इसके मूल में मानसिक आलस्य नज़र आता है, जो कि बहुत ख़तरनाक होता है। थकान, बीमारी अथवा किसी अन्य कारण से शरीर द्वारा किसी कार्य को करने की असमर्थता जताना, शारीरिक आलस्य है। लेकिन किसी भी कार्य को करने से पहले ही यह सोच लेना कि ‘यह तो मुझसे नहीं होगा’, ‘यह मेरे बस का नहीं है’, अर्थात् किसी काम को शुरू करने से पहले हार मान कर बैठ जाना या पीछे हट जाना मानसिक आलस्य है। जिसका शिकार यह युवा हो गया था।
दोस्तों, साधारण सा लगने वाला यह मानसिक आलस्य असल में होता बहुत ख़तरनाक है। अगर इसे समय रहते सही तरीक़े से ट्रीट ना किया जाए तो यह संबंधित व्यक्ति को बहुत दुखी और असफल बना सकता है। जिसके कारण इससे ग्रसित व्यक्ति को निराशा और डिप्रेशन तक हो सकती है। इससे बचने का सिर्फ़ एक तरीक़ा है साथियों, इससे पीड़ित व्यक्ति को अच्छे लोगों की संगति में रखें। जिससे उसे सकारात्मक चिंतन या सद्चिंतन करने का मौक़ा मिल सके और व्यक्ति स्वयं को ऊर्जावान बना सके।
याद रखियेगा साथियों, एक अच्छा विचार किसी इंसान के पूरे संसार को बदल सकता है। अगर वह विचार शुभ होगा तो वह ना सिर्फ़ आपकी बल्कि आपके संपर्क वाले सभी लोगों के जीवन को बदलने का सामर्थ्य रखता है। इसलिए साथियों हमेशा अच्छा सोचो ताकि मानसिक आलस्य से स्वयं को बचा सको।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
nirmalbhatnagar@dreamsachievers.com