Dec 07, 2023
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
दोस्तों, गिरते जीवन मूल्य और बढ़ता ‘मैं’ कहीं ना कहीं आने वाले कठिन समय की ओर इशारा करता है। जी हाँ दोस्तों, ‘मैं’, और ‘मेरा’ पर केंद्रित होती आज की पीढ़ी निश्चित तौर पर स्व-केन्द्रित जीवन जी रही है, जिसका एहसास गाहे-बगाहे समाज में घटती घटनाएँ हमें करा देती हैं। जैसे, अपनी आँखों के सामने दूसरों पर अत्याचार होने देना; ज़रूरतमंद की समय पर मदद ना करना; अपने फ़ायदे के लिए दूसरों को धोखा देना; पैसों को इंसान से बड़ा मानना; अपने मुनाफ़े के लिए प्राकृतिक संसाधनों का ज़रूरत से कई गुना ज़्यादा दोहन करना; आदि। सोच कर देखियेगा साथियों, क्या यह नज़रिया संपूर्ण मानवता और इस सभ्यता के लिए उचित है? शायद नहीं… तो फिर क्या किया जाए? चलिए अपनी राय मैं आपको एक कहानी के माध्यम से बताने का प्रयास करता हूँ-
बात कई साल पुरानी है, रामपुर के राजा आज प्रजा का हाल जानने के लिए भेष बदल कर अपने राज्य में घूम रहे थे। इस यात्रा के दौरान अचानक ही राजा की नज़र एक बहुत ही बुजुर्ग व्यक्ति पर पड़ी जो गाँव के एकमात्र रास्ते के किनारे पेड़ लगा रहे थे। न्यायप्रिय, प्रजा के दुख-दर्द में हमेशा साथ रहने वाले राजा के लिए एक बुजुर्ग का इस तरह शारीरिक मेहनत करते देखना थोड़ा अटपटा लगा। वे जिज्ञासावश उसके पास गए और बोले, ‘बाबा, आप इस रास्ते के किनारे-किनारे किसलिए पौधे लगा रहे हैं और यह सभी पौधे काहे के हैं?’ पूरी तल्लीनता के साथ कार्य कर रहे वृद्ध ने बिना राजा की ओर देखे, धीमे स्वर में प्रश्न का जवाब देते हुए कहा, ‘मैं रास्ते के दोनों ओर आम के वृक्ष लगा रहा हूँ। जिससे गर्मी के मौसम में राहगीरों को शीतलता देने वाली छाँव और मीठे फल दोनों मिल सकें।’
बुजुर्ग की उम्र का अंदाज़ा लगाते और उनकी शारीरिक स्थिति को भाँपते हुए राजा बोले, ‘बाबा, इन पौधों के बड़े होने और उस पर फल आने में तो कई साल लग जाएँगे। क्या आप तब तक ज़िंदा रहेंगे?’ उक्त प्रश्न पूछते वक़्त राजा के चेहरे पर मायूसी साफ़ नज़र आ रही थी। शायद वे सोच रहे थे कि वृद्ध अपनी सीमित ऊर्जा और संसाधनों का इस्तेमाल एक ऐसे कार्य के लिए कर रहे हैं, जिसका फ़ायदा शायद उन्हें अपने जीवनकाल में नहीं मिलेगा।
ख़ैर उस वृद्ध को राजा के इस ख़याल की कहाँ चिंता थी। वे तो उसी मस्ती और धुन में कार्य करते हुए, बड़े ही संतोषपूर्ण भाव के साथ बोले, ‘दूसरों की ही तरह शायद आपको भी मेरा कार्य पागलपन से अधिक कुछ लग नहीं रहा है। आपको भी आम लोगों के माफ़िक़ यही लगता है कि जिस चीज या कार्य से हमें लाभ ना मिल रहा हो उसपर अपना समय, पैसा, ऊर्जा आदि क्यों लगाया जाए?’
इतना कहकर बुजुर्ग एक पल के लिये रुके फिर राजा की आँखों में आँखें डालते हुए बोले, ‘ऐसी सोच वाले लोग अक्सर यह भूल जाते हैं कि उन्होंने दूसरों की निःस्वार्थ सेवा का कितना फ़ायदा उठाया है। अपने जीवनकाल में उन्होंने जो भी फल खाए हैं; जितना भी प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया है; क्या उसका कुछ प्रतिशत उन्हें इस प्रकृति को नहीं लौटाना चाहिये? मुझे इस बात का एहसास हो गया था इसलिए मैं उस कर्ज को उतारने का प्रयास कर रहा हूँ।’
बात तो दोस्तों, उस बुजुर्ग की सौ टका सही थी। मुझे तो कहीं ना कहीं बच्चों के लालन-पालन का तरीक़ा और हमारी आधुनिक शिक्षा प्रणाली इसके लिए ज़िम्मेदार नज़र आती है। जो कहीं ना कहीं स्वार्थी मनुष्यों की एक पीढ़ी तैयार कर रही है। जो केवल अपने लाभ के लिए ही सोचती और कार्य करती है। दोस्तों, अगर आप मेरी इस बात से सहमत हों तो आज से ही अपने बच्चों को मूल्य आधारित शिक्षा देना प्रारंभ करें।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
nirmalbhatnagar@dreamsachievers.com
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