संस्कार, सत्संग और संवेदनाओं से पाएँ सुखी परिवार…
- Nirmal Bhatnagar

- Nov 4
- 3 min read
Nov 4, 2025
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, ‘मैं’ के बढ़ते भाव के कारण आजकल परिवार में मतभेद, दूरी और अहंकार बढ़ता जा रहा है। छोटी-छोटी बातों पर रिश्ते टूट रहे हैं और एक साथ रहने की भावना कमज़ोर पड़ती जा रही है। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक ही कि कैसे पूरे परिवार को एक जुट रखा जा सके? तो मेरा जवाब है, अगर बिखरते परिवार में से एक भी व्यक्ति संस्कारी, सत्संगी और संवेदनाओं से भरा हो तो परिवार को ना सिर्फ टूटने से बचाया सकता है, बल्कि टूटे हुए परिवार को फिर से जोड़ा भी सकता है। चलिए इसी बात को हम एक प्रेरणादायक कहानी से समझने का प्रयास करते है—
बात कई साल पुरानी है, एक पिता और पुत्र वर्षों से एक ही साथ व्यापार कर रहे थे। लेकिन 40 वर्ष का हो जाने के बाद भी आज तक पिता ने बेटे को ना तो व्यापार करने ना ही व्यवसायिक निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी थी और ना ही वे उसे कभी तिजोरी की चाबी देते थे। बेटे ने इस विषय में कई बार पिता से बात करने की कोशिश करी लेकिन वे अक्सर वे इन बातों को नजरअंदाज कर जाया करते थे। बेटा पिता के इस व्यवहार से बड़ा आहत रहता था। उसे लगता था कि पिता उस पर भरोसा नहीं करते हैं और अगर इतने सालों तक साथ काम करने के बाद भी वे भरोसा नहीं कर रहे हैं तो मैं कब बाजार में अपनी पहचान बना पाऊँगा?
एक दिन बेटे के मन में दबी हुई यह आग भड़क उठी और उसने पिता से इस बात को लेकर विवाद कर लिया, जो इतना बढ़ गया कि दोनों ने अलग-अलग रहने का निर्णय ले लिया और पिता-पुत्र अलग हो गए। अब बेटा तो अपने परिवार के साथ सुखी जीवन जीने लगा, पर पिता अकेले रह गए। अब उन्हें ना तो कोई देखने वाला था और ना ही कोई सेवा करने वाला। अक्सर अब वे सूखा भोजन खाते रहे और कभी-कभी तो भूखे ही सो जाते थे।
पिता-पुत्र के इस विवाद की वजह से पुत्रवधू काफ़ी परेशान रहने लगी। जब उसे अपने ससुर के इस हाल का पता लगा तो उसका हृदय करुणा से भर गया। उसने निश्चय किया कि वह अपने ससुर की सेवा करेगी, फिर भले ही यह उसके पति को अच्छा लगे या ना लगे। बचपन से मिले संस्कारों के कारण उसके अंदर बड़ों के प्रति आदर होना स्वाभाविक था। पर सत्संग ने उसके भीतर करुणा और कृतज्ञता का भाव भी जगा दिया था। अब उसने रोज़ बच्चों और पति को खाना खिलाने के पश्चात ससुर के लिए टिफिन ले जाना शुरू कर दिया।
कई दिनों बाद जब यह बात पति को पता चली तो उसने अपनी पत्नी को इसके लिए रोका तो वह दृढ़ता के साथ बोली, “मैं अपने पूज्य ससुर को भूखा नहीं देख सकती। उन्होंने ही तुम्हें पाला, तुम्हें बड़ा किया, तभी तो मुझे तुम पति के रूप में मिले। अगर तुम्हारे हृदय में कृतज्ञता नहीं है, तो क्या मैं भी कृतघ्न बन जाऊँ? बड़ों की सेवा मेरे लिए पूजा है।” पत्नी की यह करुणा और श्रद्धा सुनकर पति का मन बदल गया। उसका हृदय पिघल गया। वह तुरंत अपने पिता के पास गया, उनके चरणों में गिरकर क्षमा माँगी और उन्हें घर लेकर आया। उस दिन से घर में फिर से प्रेम, शांति और अपनापन लौट आया। बहू और बेटे का स्नेह देख पिता ने भी प्रेमपूर्वक व्यवसाय की सारी जिम्मेदारी बेटे को सौंप दी। वह बोझ, जो अहंकार से बना था, अब प्रेम से मिट गया।
दोस्तों, सच्ची घटना पर आधारित यह कहानी हमें जीवन की एक गहरी सच्चाई सिखाती है कि रिश्तों में अधिकार नहीं, आदर चाहिए और परिवार में सुख नहीं, सहयोग चाहिए। हकीकत में घर वही होता है, जहाँ संवेदना जीवित होती है, जहाँ सेवा और सत्संग की सुगंध बसती है। याद रखियेगा, कभी-कभी एक व्यक्ति का सच्चा हृदय, एक परिवार को बिखरने से बचा सकता है। इसलिए मैं सत्संग को सिर्फ़ धार्मिक चर्चा नहीं, बल्कि जीवन जीने की दिशा मानता हूँ। जिस घर में सत्संग और संस्कार की रोशनी होती है, वहाँ अहंकार का अंधकार नहीं टिकता, वहाँ तो हर हृदय में प्रेम, क्षमा और शांति की धारा बहती है और यही जीवन में सच्चा सुख, सच्ची सम्पन्नता लाता है।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर




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