Feb 28, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…
दोस्तों, कहते हैं, ‘समय का चक्र बहुत बलवान होता है, वह एक ही पल में राजा को रंक और रंक को राजा बना सकता है।’ ऐसा ही कुछ हमारी आज की कहानी के हीरो के साथ हुआ था। वैसे तो महेश की गिनती शहर के अमीर लोगों में होती थी। लेकिन एक बार व्यवसाय में हुए घाटे के कारण वह पूरी तरह कंगाल हो गया। कालचक्र ने महेश को खाने-पीने के लिए भी मोहताज बना दिया था। एक दिन ग़रीबी से परेशान उसकी पत्नी बोली, ‘जब आपका व्यवसाय अच्छा चलता था तब आपका उठना बैठना राजा जी के साथ था। इस बुरे वक़्त में क्या हम उनसे मदद नहीं माँग सकते?’ पत्नी के सुझाव को मान महेश राजा के महल पहुँच गया और वहाँ के द्वारपाल से गुज़ारिश करी कि वह राजा तक संदेश पहुँचा दे कि उनके बचपन का साथी महेश उनसे मिलना चाहता है।’ द्वारपाल की बात सुनते ही राजा मित्र से मिलने दौड़े चले आए और आते ही महेश को गले लगा लिया। कुछ पलों के बाद राजा को मित्र का हाल समझ आया। वे द्रवित होते हुए बोले, ‘मित्र, बताओ मैं तुम्हारी क्या सहायता कर सकता हूँ?’ महेश ने सकुचाते हुए राजा को सारी बात बता दी। राजा ने मित्र को सांत्वना देते हुए कहा, ‘चिंता मत करो, मैं तुम्हें अपने रत्नों के ख़ज़ाने में ले चलता हूँ। वहाँ से जी भरकर अपनी जेब में रत्न ले जाना। बस एक ही शर्त है। तुम्हें ३ घंटे का समय मिलेगा। यदि तुम ३ घंटे में बाहर ना आए, तो तुम्हें ख़ाली हाथ ही लौटना पड़ेगा।’
यह बताते हुए राजा महेश को रत्नों के भंडार में ले गया, वहाँ की चकाचौंध देख महेश हैरान था। किसी तरह उसने अपनी भावनाओं को क़ाबू में किया और रत्नों को जेब में भर कर तुरंत बाहर जाने लगा। अभी वह दरवाज़े के पास पहुँचा ही था कि उसे मुख्य द्वार के पास कुछ खिलौने दिखाई दिए। उसने सोचा अभी तो काफ़ी समय बाक़ी है क्यों ना थोड़ी देर इनसे खेल लिया जाए? विचार आते ही महेश रत्नों के खिलौने से खेलने लगा और समय सीमा को भूल गया। समय सीमा समाप्त होने की घंटी बजते ही महेश को वहाँ से खाली हाथ बाहर जाना पड़ा।
महेश को ख़ाली हाथ देख राजा बोले, ‘मित्र निराश ना हो! मैं तुम्हें अपने स्वर्ण ख़ज़ाने में ले चलता हूँ। वहाँ थैले में जी भरकर सोना ले जाना। बस समय सीमा का ध्यान रखना।’ सुनहरी रोशनी से जगमगा रहे स्वर्ण ख़ज़ाने से महेश ने अपने थैले को सोने से भरना शुरू कर दिया। इसी दौरान उसकी नज़र सोने की काठ वाले घोड़े पर पड़ी जिस पर घूमने के सपने वो बचपन से देखा करता था। वह तुरंत उसके पास गया और अपने सपने को पूरा करने के लिए उसपर बैठ गया। घोड़े की सवारी का आनंद लेते-लेते महेश इस बार भी समय सीमा को भूल गया और उसे वहाँ से भी ख़ाली हाथ ही बाहर आना पड़ा।
राजा ने एक बार फिर उसे ढाढ़स बँधाया और उसे समय सीमा का ध्यान रखने की सलाह देते हुए अपने रजत के ख़ज़ाने की ओर ले गया और बोला, ‘यहाँ से तुम अपने ढोल में जी भरकर चाँदी ले जा सकते हो। चाँदी की धवल आभा से शोभायमान कक्ष से महेश ने अपने ढोल में चाँदी भरना शुरू कर दिया और समय सीमा का ध्यान रखते हुए, बाहर आने लगा। बाहर आते वक़्त उसकी नज़र दरवाज़े के पास टंगे चाँदी के छल्ले पर पड़ी, जिसके नीचे लिखा था, ‘छूने पर उलझने का डर है और यदि उलझ जाओ तो दोनों हाथों से सुलझाने की चेष्टा बिल्कुल न करना।’ महेश को उसमें उलझने लायक़ कुछ ना दिखा। इसलिए उसने इसे छल्ले को बचाने की राजा की योजना माना और अगले ही पल छल्ले को उठाने लगा। हाथ लगाते ही महेश छल्ले में उलझ गया। पहले उसने एक हाथ से, लेकिन सफलता ना मिलने पर दोनों हाथ से छूटने का प्रयास करा, पर सफल ना हो सका। तभी समय सीमा पूरा होने की घंटी बजी और उसे पुनः ख़ाली हाथ ही बाहर आना पड़ा।
राजा ने एक बार फिर महेश को ढाढ़स बँधाया और ताँबे के ख़ज़ाने के बारे में बताते हुए उसे समय सीमा का ध्यान रखते हुए बोरे में भरकर ले जाने का सुझाव दिया। राजा की बात सुन महेश ने सोचा, ‘कहाँ तो मेरे पास रत्नों को जेब में भरकर ले जाने का मौक़ा था और अब मुझे बोरे भर ताँबे से काम चलाना पड़ेगा।’ विचार आते ही उसने सचेत रहते हुए सजगता के साथ ताँबे को बोरों में भरना शुरू कर दिया। बोरा उठाते और ताँबा भरते-भरते महेश की कमर दुखने लगी इसलिए उसने वहाँ रखी एक चारपाई पर थोड़ा सुस्ताने का निर्णय लिया। चारपाई पर लेटते ही उसकी नींद लग गई और राजा के पहरेदारों ने उसे सोते-सोते ही ख़ज़ाने से ख़ाली हाथ ही बाहर निकाल दिया।
दोस्तों, इस कहानी में आपको महेश निश्चित तौर पर मूर्ख नज़र आ रहा होगा। सही कहा ना मैंने? आप सही सोच रहे होंगे कि महेश ने वाक़ई मूर्खता भरा काम किया है। लेकिन उसके बारे में कोई और विचार बनाने से पहले एक बार गंभीरता से पूरी कहानी पर विचार कर लीजिएगा क्योंकि यह महेश की नहीं हमारे जीवन की कहानी है। बचपन में हम खिलौनों से खेलने के लालच में जीवन ज्ञान लेने के उद्देश्य को भूल जाते हैं और उसके बाद जीवन के लक्ष्यों को पूर्ण करने की चाह में भटक जाते हैं।
जी हाँ दोस्तों, एक के बाद दूसरे, दूसरे के बाद तीसरे और फिर अगले और फिर अगले लक्ष्य के लिए भागते दौड़ते हम भी यह भूल जाते हैं कि महेश के समान ही अंत में हम भी अपने साथ कुछ लेकर नहीं जा पाएँगे। जिस तरह हमने बचपन को खिलौने से खेलने में, जवानी को पहले दौलत इकट्ठी करने में, फिर, गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों में और अंत में कइयों ने जीवन से थक कर अपने बुढ़ापे को पलंग पर बिता दिया है। इसी तरह शायद हम में से ज़्यादातर लोग अपना जीवन गुज़ार रहे हैं। दोस्तों, अगर इससे बचना चाहते हैं तो आज से ही सहज और सजग रहते हुए अपने जीवन को जीना प्रारंभ करें।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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