Nirmal Bhatnagar
सही प्राथमिकताएँ ही जीवन को संतुलित बनाती है !!!
July 23, 2023
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, मेरा मानना है कि रोज़मर्रा के कार्यों को प्राथमिकताओं के आधार पर पूरा किए बिना जीवन को प्रबंधित करना असम्भव है क्योंकि भागमभाग भरे इस जीवन में हर कार्य को सर्वश्रेष्ठ तरीके से पूर्ण कर सुख, शांति और संतोष की आस रखना अपने आप में ही व्यवहारिक नहीं है। हाल ही में एक कार्यशाला में जब मैंने उपस्थित लोगों को प्राथमिकता बनाने का अपना सूत्र बताया कि मैं सर्वप्रथम अपने स्वास्थ्य, फिर परिवार, पेशे, समाज, देश और अंत में सेवा को स्थान देता हूँ, तो वहाँ मौजूद एक सज्जन ने आपत्ति जताते हुए प्रश्न किया कि ‘क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि देश और सेवा का स्थान पहले आना चाहिए।’ वैसे उनका प्रश्न बड़ा वाजिब था और मैं उससे पूरी तरह सहमत भी था। लेकिन हमारे बीच जो मतभेद नजर आ रहा था वह सिर्फ़ और सिर्फ़ स्थिति को देखने के नज़रिए के कारण ही था क्योंकि मेरा मानना है समाज सेवा और देश सेवा आप सिर्फ़ और सिर्फ़ तभी कर सकते हैं जब आप स्वयं समाज और देश पर बोझ ना हों। लेकिन समय की नज़ाकत को देख मैंने उन सज्जन को एक कहानी सुनाने का निर्णय लिया, जो इस प्रकार थी।
बात कई साल पुरानी है एक बहुत ही सज्जन इंसान अपने परिवार को साथ ले पैदल ही तीर्थ पर निकले। कई कोस चलने के बाद जब वे रेगिस्तानी इलाक़े से गुजर रहे थे तब उन्हें और उनके परिवार को बहुत तेज प्यास लगी। वे समझ नहीं पा रहे थे कि अब क्या किया जाए क्योंकि साथ लाया पानी भी खत्म हो चुका था और उन्हें दूर-दूर तक कोई पानी का स्त्रोत या इंसान भी नज़र नहीं आ रहा था। उनकी परेशानी का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि प्यासे होने के कारण उनके परिजनों का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था।
कोई अन्य उपाय ना देख उन सज्जन पुरुष ने खुद को और अपने परिवार को भगवान के सुपुर्द कर प्रार्थना करते हुए कहा, ‘प्रभु, अब हम सबका जीवन आपके हाथ है। अब आप ही कुछ रास्ता सुझाओ।’ प्रार्थना के पश्चात जैसे ही उन सज्जन ने अपनी आँखें खोली उन्हें कुछ ही दूरी पर एक साधु तप करते हुए नज़र आए। वे तुरंत उनके पास गए और उन्हें प्रणाम कर अपनी सारी स्थिति कह सुनाई। साधु ने सर्वप्रथम उन सज्जन को आशीर्वाद दिया और बोले, ‘वत्स! यहाँ से उत्तर दिशा में एक कोस चलने पर तुम्हें पानी का एक छोटा सा दरिया दिखाई देगा। उसका पानी और आसपास लगे कंद-फूल से तुम तुम्हारी और परिवार की भूख-प्यास शांत कर सकते हो।’ साधु की बात सुन वह सज्जन बड़े प्रसन्न हुए और साधु का धन्यवाद किया और परिवार को वहीं छोड़, बिना एक पल भी गँवाए पानी लेने चले गए।
जब वह सज्जन दरिया से फल और पानी लेकर लौट रहे थे, तब उन्हें रास्ते में कुछ लोग भूखे-प्यासे नज़र आए। उनसे उन लोगों की भूख-प्यास देखी नहीं गई और उन्होंने साथ लाया सारा पानी और फल उन लोगों को दे दिया और एक बार फिर दरिया की ओर पानी और फल लेने चले गये। दूसरी बार भी उनके साथ ऐसा ही हुआ और वह एक बार फिर रास्ते में मिले लोगों को फल और पानी देकर वापस दरिया की ओर चले गये। ऐसा उस सज्जन के साथ बार-बार हो रहा था। जब वह काफ़ी देर तक पानी और फल लेकर वापस नहीं पहुँचे तो साधु उसे खोजते हुए वहाँ आए और उसे सेवा कार्य करता देख परेशान हो गए और उस सज्जन पुरुष को उसके सेवा कार्य के लिए डाँटने लगे।
इतना कहकर मैंने कहानी को बीच में ही छोड़ दिया और कार्यशाला में प्रश्न पूछने वाले व्यक्ति की ओर मुख़ातिब होता हुआ बोला, ‘सर, क्या आप बता सकते हैं कि वह साधु उन सज्जन को निस्वार्थ सेवा करते देख क्यों ग़ुस्सा हुए?’ वे सज्जन अब एकदम चुप थे। मैंने ही बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘यह बात बिल्कुल सही है कि वह सज्जन धर्म के रास्ते पर चलते हुए पुण्य कर रहे थे याने निस्वार्थ भाव से पीड़ित या परेशान मानवता की सेवा कर रहे थे। लेकिन वह यह कार्य रास्ते में मिलने वाले लोगों को दरिया का रास्ता बता कर भी कर सकते थे और साथ ही पानी और फल को अपने परिवार तक ले जाकर अपना कर्तव्य भी निभा सकते थे।’
मुझे नहीं पता साथियों, मैंने उन्हें सही जवाब या रास्ता दिखाया या नहीं, लेकिन मेरा तो यही मानना है कि सेवा या पुण्य कार्य करने से पहले हमें अपने कर्तव्य निभाना ज़रूरी है। जिस तरह वह सज्जन परेशान राहगीरों को दरिया की राह दिखाकर, फल और पानी से अपने परिवार की ज़रूरतें पूरी कर सकते थे, ठीक उसी तरह स्वास्थ्य, परिवार, पेशा, समाज, देश और अंत में सेवा को प्राथमिकता देकर शायद हम भी समाज और देश के प्रति अपना फ़र्ज़ अच्छे से अदा कर सकते हैं। एक बार विचार कर देखिएगा…
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
nirmalbhatnagar@dreamsachievers.com