May 22, 2024
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, ‘संबंध’, ‘रिश्ते’, ‘नाते’, ‘दोस्त’ आदि कुछ हमारे जीवन के कुछ ऐसे महत्वपूर्ण हिस्से हैं जिनके बिना ख़ुशनुमा जीवन की कल्पना करना भी बेमानी है। लेकिन मैंने अक्सर लोगों को ‘मैं’, ‘मेरा’, ‘मुझे’ के चक्कर में इनसे दूर होकर, अपनेपन की गर्माहट को खोते हुए देखा है। याद रखियेगा दोस्तों, ‘संबंध’, ‘रिश्ते’, ‘नाते’, ‘दोस्ती’ कभी भी एकतरफ़ा नहीं हो सकते, उसके लिए तो दोनों ओर से ही ‘हमें’ व ‘हमारा’ के महत्व को ध्यान में रखकर, त्याग की भावना से जीवन में आगे बढ़ना पड़ता है। उक्त विचार मुझे रिश्तों पर एक अनजान व्यक्ति के लिखे लेख को पढ़कर आए, जिसे मैं आपके लिये जस का तस साझा कर रहा हूँ-
“बात कुछ साल पुरानी है, मैं अपने मित्र का तत्काल पासपोर्ट बनवाने के लिए पासपोर्ट कार्यालय गया। फॉर्म लेने से लेकर उसे भरना, आवश्यक दस्तावेज की फ़ोटोकॉपी लगाना, फ़ोटो चिपकाना आदि कार्यों को पूर्ण कर मैं अंत में फ़ीस भरने के लिए कैश काउंटर पर गया और लाइन में सबसे पीछे लग गया। कुछ देर पश्चात जैसे ही मेरा नंबर आया काउंटर पर बैठे क्लर्क ने समय ख़त्म होने की घोषणा करते हुए, अगले दिन आने के लिए कह दिया। मैंने उनसे निवेदन किया तो वे बोले, ‘आपका पूरा दिन लगने के बाद भी अगर कार्य अधूरा है तो इसके लिए मैं ज़िम्मेदार नहीं हूँ। जाइए और सरकार से कहकर लोग बढ़वाइये। मैं तो सुबह से अपना काम ही कर रहा हूँ।’ इतना कहकर वे सज्जन अपना टिफ़िन लेकर कैंटीन चले गये।
कार्य अधूरा देख मेरे मित्र मायूस थे। मैंने उन्हें ढाढ़स बँधाकर वहीं रुकने का कहा और ख़ुद क्लर्क के पीछे कैंटीन की ओर चल दिया। वहाँ मैंने देखा कि एक कोने में बैठकर क्लर्क महोदय अकेले ही खाना खा रहे हैं। मैं उनके सामने जाकर मुस्कुरा कर बैठ गया और कुछ पलों बाद उनसे बोला, ‘कार्यालय में आपका कार्य बहुत महत्वपूर्ण है। आपकी मुलाक़ात तो रोज़ हज़ारों नए लोगों से होती होगी?’ वे पूरे दंभ के साथ बोले, ‘जी हाँ, मेरे पास रोज़ ढेरों लोग आते हैं, जिनमें से कई आईएएस, आईपीएस जैसे बड़े अधिकारी तो कुछ विधायक-सांसद जैसे बड़े नेता होते हैं। भैया मेरी कुर्सी के सामने ढेरों बड़े लोग इंतज़ार करते हैं।’
मैंने उनकी बात पर पहले सहमति जताई और फिर कहा, ‘अगर आप बुरा ना मानें तो क्या मैं एक रोटी आपकी प्लेट से लेकर खा सकता हूँ?’ उन सज्जन ने तुरंत ‘हाँ’ कह दिया। मैंने उनसे रोटी लेकर उन्हीं के साथ खाना शुरू कर दिया और अंत में खाने की तारीफ़ करते हुए कहा, ‘आपकी पत्नी बहुत स्वादिष्ट खाना बनाती है। मेरी तरफ़ से उन्हें शुक्रिया कहियेगा।’ एक पल चुप रहने के बाद मैंने बात आगे बढ़ाई और कहा, ‘आपकी महत्वपूर्ण सीट पर ढेरों बड़े लोग आते हैं लेकिन उसके बाद भी आप अपनी महत्वपूर्ण सीट की इज्जत नहीं करते हैं।’ वे सज्जन एकदम से बोले, ‘आप ऐसा कैसे कह सकते हैं?’ मैंने उसी शांत भाव से कहा, ‘अगर आप उसकी इज्जत करते, तो इतने रूखे स्वभाव वाले ना होते। सुबह से मैं देख रहा हूँ कि कार्यालय में आपका एक भी दोस्त नहीं है; खाना भी आप अकेले बैठ कर खाते हैं और अपना कार्य भी बड़ी मायूसी के साथ करते हैं। कई बार ऐसा लगता है, जैसे, आप लोगों के काम कर कम रहे हैं और अटका ज़्यादा रहे हैं। सरकार से कहकर ज़्यादा लोगों को रखने वाली सोच कुल मिलाकर आपकी अहमियत ही कम करेगी। आज भगवान ने आपको नए लोगों से रिश्ते बनाने का मौक़ा दिया है। लेकिन आप उस मौक़े को दुर्भाग्य में बदल रहे हैं। मेरा क्या है मैं तो कल… परसों… जब आप बुलायेंगे आ जाऊँगा। लेकिन किसी को एहसानमंद बनाने का जो मौक़ा आपके पास था, आपने उसे हमेशा के लिए गँवा दिया।’ एक पल की चुप्पी के बाद मैंने कहा, ‘पैसे तो आप बहुत कमा लोगे, लेकिन रिश्ते नहीं कमाए तो सब बेकार है। मेरी मानें तो अपना व्यवहार ठीक रखें नहीं तो घर वाले भी बाहर वालों की तरह आपसे दुखी रहने लगेंगे।’
मेरी बात ने उन सज्जन को रुआँसा कर दिया। गहरी और ठंडी साँस लेते हुए वे बोले, ‘आपने सही कहा साहब मैं अकेला हूँ। बीबी मुझे छोड़, बच्चों के साथ मायके चली गई है। बच्चे और वो दोनों ही मुझसे बात नहीं करते। माँ मेरी ज़रूरतें तो पूरी कर देती है, लेकिन दूर-दूर ही रहती है। रात में घर जाने का भी मन नहीं करता। समझ में नहीं आता कि गड़बड़ी कहाँ है?’ मैंने उनके कंधे पर हाथ रख कर धीमे से कहा, ‘खुद को लोगों से जोड़ो। किसी की मदद कर सकते हो तो करो। देखो मैं यहाँ अपने दोस्त के पासपोर्ट के लिए आया हूँ। उसी दोस्त की ख़ातिर, निस्वार्थ भाव से, मैं तुम्हारी मिन्नतें कर रहा हूँ।’ वे सज्जन उसी पल खड़े हुए और बोले, ‘आप खिड़की पर पहुँचिए, मैं आज ही आपका फॉर्म जमा करूँगा और हाँ ज़रा अपना फ़ोन नंबर दीजिए।’ मैंने वैसा ही किया और अपना कार्य पूर्ण कर वापस आ गया।
इस घटना के वर्षों बाद, एक दिन रक्षाबंधन को उनका फ़ोन आया, ‘साहब रविंद्र कुमार चौधरी बोल रहा हूँ, कई साल पहले आप अपने दोस्त का पासपोर्ट बनवाने के लिए हमारे पास आए थे, और आपने मेरे साथ रोटी भी खाई थी।’ मैंने तुरंत कहा, ‘हाँ चौधरी साहब, कैसे हैं आप?’ चौधरी जी बोले, ‘अच्छा हूँ। उस दिन आपके जाने के बाद मैं सोच रहा था, ‘पैसे तो सचमुच बहुत लोग दे जाते हैं, लेकिन साथ खाना खाने वाला कोई नहीं मिलता। अगले ही दिन मैं पत्नी के मायके गया और मिन्नतें कर उसे घर लाया। शुरू में वह मान ही नहीं रही थी लेकिन खाने के वक्त मैंने उसकी थाली में से एक रोटी उठा ली और कहा कि ‘साथ खिलाओगी?’ तो वह रोने लगी। फिर कुछ देर बाद बच्चों के साथ मेरे साथ वापस आ गई। साहब, अब मैं पैसे नहीं, रिश्ते कमाता हूँ। जो आता है उसका काम कर देता हूँ।
लोगों से सही मायने में जुड़ने का मतलब आपने मुझे सिखाया था इसीलिए आज रक्षाबंधन के दिन आपको शुभकामना देने के लिए फ़ोन करा। अगले महीने बिटिया की शादी है और आपको उसे आशीर्वाद देने हर हाल में आना है। आख़िर रिश्ता जोड़ा है आपने।’ वे बोलते जा रहे थे और मैं सुनता। कभी सोचा नहीं था मेरी बात उनका जीवन इतना बदल देगी।
वाक़ई दोस्तों, इस क़िस्से ने रिश्ते बनाने और फिर उन्हें दिल से निभाने की मेरी सोच को अतिरिक्त बल दिया। शायद इसीलिए मैंने इसे आपके साथ जस का तस साझा किया। याद रखियेगा, नियमों से मशीन चला करती हैं, इंसान नहीं। इंसान के लिए नियम से ज़्यादा भावनायें काम करती हैं। इसीलिए कहा गया है, ‘जो व्यक्ति सभी के साथ एक हो जाता है; जो सभी को एक मानकर देखता है, वह हमेशा ईश्वर के साथ होता है।’
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
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