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सिर्फ़ संसाधन नहीं विवेक बनाता है आपको सफल…

  • Writer: Nirmal Bhatnagar
    Nirmal Bhatnagar
  • Feb 2, 2024
  • 3 min read

Feb 2, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

आईए दोस्तों, आज के लेख की शुरुआत एक कहानी से करता हूँ। बात कई साल पुरानी है, शहर के बाहरी इलाक़े में ज्ञान सिंह नाम के एक बहुत ही सज्जन और सक्षम व्यक्ति रहा करते थे। ज्ञान सिंह अपने नाम के अनुरूप ही बहुत बुद्धिमान और होशियार व्यक्ति थे। ईश्वर की कृपा से ज्ञान सिंह के चार पुत्र थे, जिनका विवाह पूर्व में हो गया था और अब सभी राज़ी ख़ुशी अपना जीवन संयुक्त रूप से रहकर निर्वहन कर रहे थे।


उम्र का तक़ाज़ा देख एक बार ज्ञान सिंह के मन में विचार आया कि अब उन्हें अपने संचित धन और व्यापार की बागडोर सक्षम उत्तराधिकारी को खोजकर सौंप देना चाहिए। लेकिन अब उनके सामने मुख्य प्रश्न था, ‘चारों बेटों में से सही उत्तराधिकारी को कैसे पहचाना जाए?’ एक दिन उन्होंने अपने चारों बेटों को एक-एक कर उनकी पत्नी सहित बुलाया और गेहूँ के १० दाने देते हुए कहा, ‘उम्र और शारीरिक स्थिति को देख मैंने तीर्थ यात्रा पर जाने का निर्णय लिया है। पूरी यात्रा करने में मुझे लगभग ५ वर्ष का समय लगेगा। तुम चारों में से जो भी इन गेहूँ के दानों की सही देखभाल करेगा और तीर्थ यात्रा से लौटने के बाद मुझे वापस सौंप देगा, वही मेरे व्यापार और संपत्ति का उत्तराधिकारी होगा।’ इसी तरह चारों भाइयों को गेहूँ के दाने देकर ज्ञान सिंह तीर्थ यात्रा पर चले गए।


सबसे बड़े बेटे-बहू को लगा उम्र के साथ पिताजी सठिया गये हैं। पाँच साल बाद उन्हें कौन सा याद रहेगा कि उन्होंने हमें गेहूं के दाने सँभालने के लिए दिये हैं और वैसे भी हम तो घर में सबसे बड़े हैं इसलिए व्यापार और धन पर पहला हक़ हमारा ही होगा। ऐसा सोचकर उन्होंने गेहूँ के दानों को ऐसे ही फेंक दिया। दूसरे भाई ने अपनी पत्नी से सलाह मशविरा किया और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि गेहूं के दानों को सम्भाल कर रखना तो असंभव है। इसलिए हमें इसे खा लेना चाहिए, ऐसा करना शायद उन्हें अच्छा लगे और वे आशीर्वाद स्वरूप हमें संपत्ति और व्यापार सौंप दें। विचार आते ही उन्होंने गेहूँ के दानों को खा लिया। तीसरे बेटे ने सोचा हम तो पूजा-पाठी लोग हैं। रोज़ जिस तरह ठाकुर जी की सेवा करते हैं वैसे ही इन गेहूँ की सेवा करना शुरू कर देते हैं और जब पिताजी लौट कर आयेंगे तब उन्हें उनके गेहूँ के दाने लौटा देंगे। छोटे बेटे ने बुद्धिमानी का परिचय देते हुए सोचा कि पिता बिना वजह के तो यह दाने देकर गये नहीं होंगे। इसके पीछे उनकी कुछ ना कुछ तो सोच होगी। इसलिए काफ़ी विचार कर उसने उन गेहूँ के दानों को बो दिया और बीतते समय के साथ उन दस दानों ने कई बोरी गेहूँ का रूप ले लिया।

पाँच साल बाद जब ज्ञान सिंह वापस आए तो एक कर हर बेटे बहू से मिले और उनकी कहानी सुनी। अंत में जब वे चौथे बहु-बेटे के पास पहुँचे और जब उन्हें पता चला कि १० गेहूँ के दाने अब कई बोरी गेहूँ बन चुके हैं तो वे बहुत खुश हुए। उन्होंने उसी पल तिजोरी की चाबी और व्यापार की ज़िम्मेदारी सबसे छोटे बहू-बेटे को सौंप दी और कहा ‘तुम ही लोग मेरी संपत्ति के असल हक़दार हो।’


दोस्तों, असल में यह क़िस्सा और कुछ नहीं हमारे जीवन की कहानी है या यूँ कहूँ हमारे जीवन का एक प्रतीक है जो हमें यह समझाता है कि शुरुआत कितनी भी छोटी क्यों ना हो, अगर सही नज़रिया रख कर, सही दिशा में मेहनत की जाए तो बड़े से बड़ा लक्ष्य पाया जा सकता है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो सही नज़रिए और सही दिशा के साथ की गई मेहनत से छोटी से छोटी शुरुआत को भी एक बड़ा रूप दिया जा सकता है। ठीक इसी तरह, एक छोटी सी ज़िम्मेदारी को भी, उपलब्ध संसाधनों का सही उपयोग कर, सर्वोत्तम (बहुत अच्छी) तरह से निभाया जा सकता है और उसका प्रभाव अद्भुत हो सकता है। इसीलिए तो कहा गया है, ‘विवेक का मतलब है कि हम कम से कम साधनों का प्रयोग कर के ज्यादा से ज्यादा परिणाम दे।’


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

 
 
 

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