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सुनना है जरूरी…

Writer: Nirmal BhatnagarNirmal Bhatnagar

Feb 12, 2025

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

आइए साथियों आज के लेख की शुरुआत एक सूफी कहानी से करते हैं। कई वर्ष पहले एक बहरा चरवाहा पहाड़ी के किनारे भेड़ चराते हुए इस बात के लिए परेशान था कि उसकी पत्नी आज समय पर उसके लिए भोजन लेकर क्यों नहीं पहुँची? बीतते समय के साथ उसका मन तरह-तरह की शंकाओं से भरता जा रहा था। कभी उसे लगता था कि कहीं रास्ते में कोई अनर्थ तो नहीं हो गया? या कहीं ऐसा तो नहीं है कि वह बीमार पड़ गई हो? जोर की भूख और मन की बेचैनी से परेशान हो वह बार-बार घर जाने के विषय में सोच रहा था। लेकिन साथ ही उसे यह भी चिंता थी कि कहीं कोई उसकी भेड़ों को हाँक ना ले जाये।


चूँकि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि उसकी पत्नी भोजन लेकर समय पर ना पहुंची हो, इसलिए इस पूर्ण बहरे चरवाहे ने घर जाने का निर्णय लिया और अपने आस-पास किसी इंसान को खोजने का प्रयास करने लगा जिसे भेड़ों की ज़िम्मेदारी सौंपी जा सके। जल्द ही उसे पेड़ की ऊपरी टहनी पर बैठा एक लकड़हारा दिखा, जो लकड़ी काट रहा था। बहरा चरवाहा तुरंत उसके पास गया और लगभग चिल्लाते हुए बोला, ‘मेरे भाई! आज पत्नी भोजन लेकर नहीं आ पाई है, तुम जरा मेरी भेड़ों का ध्यान रखना। मैं दौड़कर जाता हूँ और जल्द ही भोजन लेकर लौट आता हूँ।’


संयोग से लकड़हारा भी बहरा था, वह चरवाहे की बात सुन ही नहीं पाया। वह अपनी ही धुन में हाथ से जाने का इशारा करते हुए बोला, ‘अरे भाई मैं बहरा हूँ, तेरी बात सुनना मेरे बस का नहीं है। जा-जा तू तेरा काम कर, मैं मेरा काम कर रहा हूँ।’ चरवाहे ने अंदाजा लगाया कि लकड़हारा कह रहा है कि जा, तू अपनी रोटी ले आ। मैं तेरी भेड़-बकरी का ध्यान रख लूंगा। चरवाहा उसी क्षण दौड़ता हुआ अपने घर गया और जल्द ही अपना भोजन लेकर आ गया। लौटकर उसने अपनी भेड़ों की गिनती कर सुनिश्चित किया कि उनकी संख्या बराबर है। अब वह सोच रहा था कि लकड़हारा बड़ा प्यारा और नेक इंसान है। उसने मेरी भेड़ों का बराबर ध्यान रखा, इसलिए मुझे उसे कुछ ना कुछ इनाम देना चाहिए। विचार आते ही वह एक लंगड़ी भेड़ लेकर उस बहरे लकड़हारे के पास गया और बोला, ‘मेरे भाई, धन्यवाद! तुमने मेरी भेड़ों का ध्यान रख बड़ी कृपा करी, कृपया यह भेड़ स्वीकार कर लो। ऐसे भी इसे काटना ही था।’ बहरा लकड़हारा कुछ सुन तो पाया नहीं, उसने अंदाजा लगाया कि बहरा चरवाहा पूछ रहा है कि उसने भेड़ की टाँग क्यों तोड़ी? उसने अपनी तरफ़ से स्पष्टीकरण दिया जो चरवाहे को समझ नहीं आया और जल्द ही इस बात को लेकर दोनों में जम कर विवाद हो गया। एक चिल्ला कर कह रहा था कि ‘मैंने तेरी भेड़ देखी नहीं। मैं क्यों उसका पैर तोड़ूँगा? और दूसरा कह रहा था, ‘मेरे भाई, इसको स्वीकार कर लो।’ पर चूँकि दोनों बहरे थे इसलिए स्थिति बड़ी विचित्र और कठिनाई वाली बन गई थी।


तभी वहाँ घोड़े पर बैठकर एक चोर आया। चूँकि वह रास्ता भटक गया था इसलिए उसने लकड़हारे और चरवाहे से रास्ता पूछने का निर्णय लिया और उन दोनों के पास पहुँच गया। दोनों ने उसे पकड़ लिया और एक साथ चिल्लाते हुए उससे आपसी झाड़ा सुलझाने के लिए कहने लगे। संयोग से यह चोर भी बहरा था, उसे लगा इन दोनों ने उसे पहचान लिया है और उसे पकड़ कर कोतवाल के पास ले जाने के लिए कह रहे हैं। वह बोला, ‘भाई, घोड़ा जिसका भी हो ले लो। मुझसे भूल हो गई थी, मुझे माफ करो।’ लेकिन वह दोनों अभी भी कुछ समझ नहीं पा रहे थे, इसलिए बस अपनी बात चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे थे। विवाद बढ़ता और चलता ही जा रहा था और सुलझने का कोई रास्ता दिखाई ही नहीं पड़ रहा था, क्योंकि कोई किसी की सुन ही नहीं पा रहा था।


दोस्तों, ऐसा ही कुछ हमारे जीवन में भी रोज घटित होता है। हम सभी लोग कहीं ना कहीं इतने अधिक स्व-केंद्रित होते जा रहे हैं कि अपने आस-पास या अपने परिवार में घट रही बातों पर भी ध्यान नहीं दे पा रहे हैं। यह स्थिति कहीं ना कहीं समाज को संवेदना शून्य बनाती जा रही है और इसी कारण लगभग सभी के जीवन संवाद के साथ नहीं, विवाद के साथ चल रहे हैं। दोस्तों, अगर लक्ष्य, अच्छा जीवन जीना है तो ‘मैं और मेरा’ से बाहर निकलो और सभी को साथ लेकर चलो।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

 
 
 

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