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सेवा करें तो सिर्फ निस्वार्थ…

Writer: Nirmal BhatnagarNirmal Bhatnagar

Feb 14, 2025

फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, अक्सर आपने सुना होगा पहले मैं कुछ बन जाऊँ, फिर दान धर्म करूँगा। लेकिन हकीकत इसके ठीक विपरीत है, अगर आप दान-धर्म करोगे तो यकीनन बड़े बन जाओगे। अपनी बात को मैं आपको एक किस्से से बताने का प्रयास करता हूँ। एक सज्जन 31 दिसंबर की ठंडी धुंध भरी रात को अपनी पत्नी के साथ एक दोस्त की पार्टी से लौट रहे थे। रास्ते में उन सज्जन की नज़र फुटपाथ पर सोने का प्रयास कर रहे बूढ़े व्यक्ति पर पड़ी, जो सड़क किनारे एक पेड़ के नीचे फटी चादर ओढ़े, काँपता हुआ लेटा था। उन्होंने तुरंत अपनी गाड़ी रोकी और पत्नी से कहा, ‘क्यों ना हम गाड़ी में रखें इस कंबल को उस बुजुर्ग को दे दें?’


पत्नी झिझकते हुए बोली, ‘तुम्हें इस कंबल की क़ीमत का अंदाज़ा है? वैसे भी उसे कंबल देने का कोई फ़ायदा नहीं है क्योंकि ऐसे लोग उसे बेच देते हैं।’ वे सज्जन शायद अपनी पत्नी के मत से सहमत नहीं थे, इसलिए उसकी सलाह के विरुद्ध जाते हुए उन्होंने गाड़ी को साइड में लगाया और उतरकर उस बूढ़े व्यक्ति को कंबल उढा आए। उनके सेवाभावी भाव को देख उस बुजुर्ग की आँखों में कृतज्ञता के आँसू छलक पड़े।


अगले दिन रात को संयोग से उन सज्जन का एक बार फिर अपनी पत्नी के साथ उसी रास्ते से गुजरना हुआ। उस बुजुर्ग के पास पहुंचते ही पत्नी एकदम से बोली, ‘देखो जी, आज वह बुजुर्ग फिर कल की ही तरह सर्दी में काँप रहा है। मैं नहीं कह रही थी ऐसे लोग दान में मिली चीजों को बाज़ार में बेच आते हैं। इसीलिए मैं ऐसे लोगों को कोई चीज नहीं देती।’ वे सज्जन कुछ बोले तो नहीं, बस गाड़ी रोक कर अपनी पत्नी को ले उस बुजुर्ग के पास पहुंच गए और बोले, ‘बाबा, वो कल वाला कंबल कहाँ गया?’ बूढ़े बाबा कुछ कहते, उसके पहले ही उनकी पत्नी बोली, ‘निश्चित तौर पर उसे बेचकर नशे का सामान खरीद लिया होगा।’ उन सज्जन ने पत्नी को चुप रहने का इशारा किया और बुजुर्ग की ओर देखने लगे। उन बुजुर्ग ने सज्जन व्यक्ति की पत्नी की बात को नज़रअंदाज़ करते हुए मुस्कुराते हुए सामने वाले फुटपाथ की ओर इशारा किया, जहाँ एक बूढ़ी औरत वही कंबल ओढ़ बैठी थी।


कुछ क्षण वहाँ एकदम ख़ामोशी छा गई, फिर वे बुजुर्ग एकदम धीमी लेकिन एकदम गंभीर आवाज में बोले, ‘बेटा! वह औरत पैरों से विकलांग है और उसके तो कपड़े भी काफ़ी फट गए हैं। इसी वजह से अक्सर लोग भीख देते हुए भी उसे गंदी नजरों से देखते थे। उसे मुझ से ज़्यादा इस कंबल की जरूरत थी। इसलिए वह मैंने उसे दे दिया।’ उन बुजुर्ग का जवाब सुन पति-पत्नी दोनों स्तब्ध थे और उनकी आँखों में पश्चाताप के आँसू थे। एक क्षण बाद उन सज्जन की पत्नी उनका हाथ पकड़ते हुए बोली, ‘चलो जी हम घर जाकर इन बाबा के लिए भी एक कंबल और बुजुर्ग महिला के लिए कुछ कपड़े ले आते हैं।’

दोस्तों, उक्त क़िस्सा सुनते ही मन में सिर्फ़ एक विचार आया था, सच्ची मानवता निःस्वार्थ सेवा में निहित है और देने के लिए साधन संपन्न होने से ज्यादा जरूरी, भाव का होना है। जब आपके अंदर देने का भाव होता है, तो आप मदद करने के पहले लेकिन, किंतु, अगर-मगर के फेरे में नहीं पड़ते और यह नहीं सोचते कि सामने वाला आपकी मदद की कद्र करेगा या नहीं। आपके मन में तो एक ही बात होती है कि शुक्र है हमें ईश्वर ने देने वालो की श्रेणी में रखा है, मांगने वालो की नहीं। इसलिए यह हमारा कर्तव्य है कि हम जरूरतमंदों की सहायता करें और समाज में दयालुता का प्रसार करें।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

 
 
 

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