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Writer's pictureNirmal Bhatnagar

सेवा ही ईश्वर की सच्ची भक्ति है...

Nov 27, 2024

फिर भी ज़िंदगी हसीन है...

दोस्तों, सामान्य स्थिति में देखा जाए तो यह बात बिल्कुल सही है कि व्यापार के समय सेवा और सेवा के समय व्यापार नहीं हो सकता है। लेकिन अगर बात बूढ़े, बीमार, परेशान, अपाहिज और बच्चों से जुड़ी हो तो इसे हमें उपरोक्त नियम और व्यक्तिगत हितों से ऊपर देखना चाहिए। अपनी बात को मैं आपको एक कहानी से समझाने का प्रयास करता हूँ।


बात कई साल पुरानी है, ईश्वर की भक्ति में लीन रहने वाले दीपेश पुजारी को ना सिर्फ़ उनके गाँव, बल्कि आस-पास के पूरे इलाक़े में बड़े श्रद्धा और सम्मान के भाव के साथ देखा जाता था। इसकी मुख्य वजह उनका ज्ञान, सरल व्यवहार, मीठे बोल और आवश्यकता पड़ने पर जरूरतमंद की मदद करने का नजरिया था। वे प्रतिदिन मंदिर आकर पहले भजन-पूजन करते और फिर लोगों की समस्याओं का निवारण करने का प्रयास करते।


उसी गाँव में एक तांगे वाला भी था, जो लोगों को एक गाँव से दूसरे गाँव या एक स्थान से दूसरे स्थान छोड़ा करता था। उसने अपनी सवारियों से दीपेश पुजारी जी के विषय में काफ़ी सुन रखा था। इसलिए उसके मन में भी एक बार पुजारी जी से मिलने की इच्छा थी। लेकिन अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाने की जुगत में सुबह से शाम तक काम में व्यस्त रहने के कारण वह मंदिर नहीं जा पा रहा था। इस बात को वह अक्सर बड़े दुखी मन से लोगों को बताते हुए कहता था कि पेट पालने के चक्कर में वह मंदिर नहीं जा पा रहा है। इसी वजह से बीतते समय के साथ उस तांगे वाले को लगने लगा था कि वह लगातार ईश्वर से दूर होता जा रहा है और पूरे गाँव में शायद ही कोई उसके जैसा पापी हो। यह सब बातें उसके मन में ग्लानि का भाव पैदा कर देती थी, जिसके कारण वह अपने कार्य को भी कई बार ठीक से नहीं कर पाता था।


एक दिन इन बातों से परेशान होकर तांगे वाला सब काम छोड़कर मंदिर गया और दर्शन के पश्चात एक ही साँस में पुजारी जी से सारी बात कह गया, ‘पंडित जी! मैं सुबह से शाम तक तांगा चलाकर परिवार का पेट पालने में व्यस्त रहता हूँ। पूजा या अनुष्ठान करना तो मेरे लिए दूर की बात है क्योंकि मुझे तो मंदिर आने का भी समय नहीं मिलता है। दीपेश पुजारी समझ गए कि तांगे वाला अपराध बोध से ग्रसित है और कहीं ना कहीं उसे ईश्वर के कोप का भय भी है। उन्होंने उसे शांत करते हुए कहा, ‘इसमें दुखी होने की क्या बात है?’ तांगे वाला बोला, ‘पंडित जी, मुझे अपने जीवन में कभी विधि-विधान से पूजा करने का मौक़ा नहीं मिला। पता नहीं आगे भी कभी मिलेगा या नहीं। इसलिए मुझे लगता है कि मृत्यु के बाद भगवान मुझे नर्क में ना भेज दें। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि सब कुछ छोड़कर मुझे ईश्वर की भक्ति में लग जाना चाहिए।’


पंडित दीपेश ने तांगे वाले की सारी बातों को नज़रअंदाज़ करते हुए सीधे पूछा, ‘तुम तांगे में सुबह से शाम तक लोगों को एक गांव से दूसरे गांव पहुंचाते हो। क्या कभी तुमने किसी बूढ़े, अपाहिज, बच्चों या जिनके पास पैसे न हों, उनकी मदद की है? बिना पैसे लिए उन्हें तांगे से उनके गंतव्य तक छोड़ा है?’ तांगे वाला बोला, ‘बिल्कुल पंडित जी! मैं अक्सर ऐसा करता हूँ। यदि कोई पैदल चलने में असमर्थ दिखाई पड़ता है, तो उसे अपनी गाड़ी में बिठा लेता हूँ और उससे पैसे भी नहीं मांगता।’ तांगे वाले का जवाब सुन पंडित दीपेश खुश हो गए और तांगे वाले से बोले, ‘ तुम अपना काम बिलकुल मत छोड़ो। बूढ़ों, अपाहिजों, रोगियों, बच्चों और परेशान लोगों की सेवा ही ईश्वर की सच्ची भक्ति है।’


बात तो दोस्तों, पंडित दीपेश की सोलह आने सच थी क्योंकि जिस इंसान के मन में करुणा और सेवा करने का भाव हो, उसके लिए तो उसका कार्य या यूँ कहूँ पूरा संसार ही मंदिर है। सामान्य मंदिर तो उन लोगों के लिए हैं जो अपने कर्मों से ईश्वर की प्रार्थना नहीं करते। जी हाँ दोस्तों, परोपकार और दूसरों की सेवा करना ही ईश्वर की सच्ची भक्ति है और जो इंसान पूरी ईमानदारी के साथ अपने परिवार का भरण-पोषण करने के साथ ही दूसरों के प्रति दया रखता है, वही इंसान प्रभु को सबसे ज्यादा प्रिय होता है।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

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