जिएँ स्वीकारोक्ति के भाव के साथ…
- Nirmal Bhatnagar

- 1 day ago
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Nov 13, 2025
फिर भी ज़िंदगी हसीन है…

दोस्तों, क्या आपने कभी खुद की तुलना किसी और से की है? जैसे, कभी किसी दोस्त की सफलता देखकर मन में हल्की सी टीस उठी हो, या किसी की असफलता देखकर भीतर से संतोष का भाव आया हो। अगर हाँ, तो यह बहुत स्वाभाविक है क्योंकि हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं, जहाँ हर दिन तुलना का मापदंड हमारे सामने रख दिया जाता है। लेकिन सच्चाई यह है कि तुलना जीवन की सबसे बड़ी भूलों में से एक है। ऐसा मैं सिर्फ़ इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि तुलना या तो आपके अंदर हीनता का भाव जगाती है, या फिर अहंकार का और दोनों ही मनुष्य को उसकी वास्तविक शांति से दूर कर देते हैं।
चलिए, थोड़ा विस्तार से समझने का प्रयास करते हैं कि तुलना क्यों खतरनाक है? दोस्तों, जब हम किसी से अपने आपको कमतर मानते हैं, तो भीतर से एक अधूरापन, असंतोष या फिर जलन का भाव जन्म लेता है। इसी तरह जब हम खुद को दूसरों से श्रेष्ठ मानने लगते हैं, तो अहंकार चुपचाप हमारे मन में जगह बना लेता है। दोनों ही स्थिति में हम “स्वयं” से दूर हो जाते हैं। हम भूल जाते हैं कि हर व्यक्ति की यात्रा, हर आत्मा की गति, अपनी-अपनी दिशा में चल रही है।
जी हाँ दोस्तों, हम सब को ईश्वर ने अपने-अपने लक्ष्यों को पाने के लिए भेजा है। याने किसी और की मंज़िल आपकी मंज़िल नहीं हो सकती है। आपका समय, आपकी कहानी और आपकी यात्रा अनोखी है। तुलना केवल उस सुंदरता को धुंधला करती है, जो आपके भीतर पहले से मौजूद है।
इसलिए दोस्तों, मैं तुलना से बचने को शांति पाने का मार्ग मानता हूँ। अगर आप मेरी बात से सहमत हों और तुलना से बचने का समाधान जानना चाहते हों तो मेरा सुझाव है कि आप आत्मसम्मान के भाव के साथ जीवन जीना शुरू कर दें क्योंकि तुलना से बचने का सबसे प्रभावी उपाय आत्मसम्मान को जगाना है। जब आप भीतर से स्वयं को स्वीकार करते हैं, तो बाहरी सफलता या असफलता आपको हिला नहीं सकती।
आगे बढ़ने से पहले मैं आपको बता दूँ कि मेरी नज़र में आत्मसम्मान का अर्थ यह समझना कि मैं भी इस सृष्टि का एक अद्वितीय अंश हूँ। मेरे भीतर भी वही प्रकाश है जो सूर्य, चाँद और तारों में है। जब आप अपनी असली पहचान से जुड़ते हैं, तो दूसरों की चमक से डर नहीं लगता। बल्कि उनकी सफलता आपको प्रेरित करती है, और आपका हृदय आभार से भर जाता है।
इसके साथ ही दोस्तों, अपने भीतर “आध्यात्मिक आत्मगौरव” के भाव को विकसित कीजिए, जो अहंकार से नहीं, बल्कि स्वाभिमान से जन्मता है। आध्यात्मिक आत्मगौरव की भावना कहती है आपके अंदर संतुष्टि का भाव जगाकर इस बात का एहसास करवाती है कि “मैं जैसा हूँ, पूर्ण हूँ। मुझे किसी से बेहतर या कमतर होने की आवश्यकता नहीं।” जब यह दृष्टिकोण आपके में स्थिर हो जाता है, तो जीवन में संतुलन, शांति और आनंद अपने आप आने लगते हैं। फिर आप दूसरों से तुलना नहीं करते बल्कि उनकी यात्रा का सम्मान करते हैं, और साथ ही अपनी राह पर विश्वास रखते हैं।
अंत में निष्कर्ष के तौर पर मैं इतना ही दोहराऊँगा कि जीवन का असली सौंदर्य तुलना में नहीं, बल्कि स्वीकारोक्ति के भाव के साथ जीने में है। जब आप खुद को वैसे ही स्वीकार करते हैं जैसे आप हैं, तो आपकी रोशनी और तेज़ी से चमकने लगती है। आपका आत्मबल बढ़ता है, और आप उस संतुलित अवस्था में पहुँचते हैं जहाँ न तो ईर्ष्या रहती है, और ना ही अहंकार। वहाँ तो केवल शांति का भाव रहता है।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर




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