फिर भी ज़िंदगी हसीन हैं...
आज़ादी का रखें ख़्याल
Aug 17, 2021
आज़ादी का रखें ख़्याल…
हमारे कल के लेख ‘गर्व, ना की शर्म आधारित राष्ट्रवाद बनाएगा आपको विकसित राष्ट्र!!!’ पर बेहतरीन प्रतिक्रिया देने के लिए आप सभी का शुक्रिया। वाक़ई दोस्तों, राष्ट्र को मज़बूत बनाने के लिए उसके गौरवशाली पलों में झांकना होता है। कल के लेख को पढ़ने के बाद एक पाठक श्री मनीष सिंह ने प्रश्न किया, ‘क्या चरित्र निर्माण के बिना गर्व पर आधारित राष्ट्रवाद की परिकल्पना की जा सकती है? अगर नहीं, तो फिर सही इतिहास पढ़ाने से भी क्या होगा?’
मनीष जी मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ, बिना चरित्र निर्माण के राष्ट्रवाद की परिकल्पना करना सही नहीं है। लेकिन एक बार सोचकर देखिए चरित्र बनता कैसे है? जन्म से? बिलकुल नहीं, कोई भी जन्म से बेईमान पैदा नहीं होता। फिर क्या हक़ीक़त में ज़्यादातर लोग बेईमान हैं? बिलकुल नहीं। फिर हमें ऐसा क्यूँ लगता है कि सब बेईमान हैं? क्यूँकि दोस्तों, यहाँ भी हमसे एक चूक हो गई है। ज़्यादातर लोग बचपन से ही यह सुनते है कि ‘सौ में से नब्बे बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान!’ और साथ ही बड़े होते-होते वे कुछ ग़लत लोगों को महत्वपूर्ण पद पर देख राष्ट्रवाद या लोगों के चरित्र के बारे में ग़लत धारणाएँ बना लेते हैं।
दोस्तों धारणाओं और सच्चाई के बीच के महीन अंतर को न पहचान पाना मेरी नज़र में ज़्यादा बड़ी समस्या है और इस समस्या का समाधान सही समय पर सही शिक्षा देकर ही किया जा सकता है। इसीलिए मैंने कल के लेख में कहा था, ‘हमें नई पीढ़ी को हमारे गौरवशाली इतिहास के बारे में बताना होगा।’ क्यूँकि ऐसा करने से हम उनमें अपने देश और अपने देशवासियों के प्रति गर्व की भावना पैदा कर सकते हैं।
कहते हैं ना, ‘हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या!’ चलिए इतिहास के पन्नों से भगत सिंग के जीवन के अंतिम कुछ घंटों और उन्हें फाँसी दिए जाने से पूर्व जेल के माहौल को जानने का प्रयास करते हैं और उसके बाद आप स्वयं निर्णय लीजिएगा कि मैं जो कह रहा हूँ, वह सही है या नहीं।
बात 23 जनवरी 1931 की शाम 4 बजे की है, जेल वॉर्डन चरत सिंह ने अचानक जेल में बंद सभी क़ैदियों से कहा कि ऊपर से आदेश आया है कि वे सभी, इसी वक्त अपनी बैरक में चले जाएँ। कोई भी कुछ समझ नहीं पा रहा था, पर आदेश तो आदेश था, सभी ने उसका पालन किया। क़ैदी कुछ समझ पाते उससे पहले ही बैरकों के सामने से जेल का नाई बरकत फुसफुसाते हुए गुज़रा कि आज रात भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी जाने वाली है। इस खबर ने सभी क़ैदियों को अंदर तक झकझोर दिया था। वे समझ ही नहीं पा रहे थे कि वे इस पर किस तरह की प्रतिक्रिया दें।
कुछ क़ैदियों ने बरकत से गुज़ारिश करी कि वे फांसी के बाद भगत सिंह की कोई भी चीज़ जैसे पेन, कंघा, किताब या घड़ी उन्हें लाकर दें ताकि वे इस महान क्रांतिकारी की निशानी सहेज सकें। बरकत ने ऐसा ही किया, लेकिन सामान लेने के लिए मची होड़ से बचने के लिए बाद में ड्रा निकालकर तय किया गया कि किस-किस को भगत सिंग का सामान मिलेगा।
ख़ैर बीतते समय के साथ जेल में खामोशी बढ़ती जा रही थी, जेल में बंद हर क़ैदी भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के अंतिम दर्शन करने के लिए फाँसी देने के लिए ले जाए जाने वाले रास्ते पर निगाहें गढ़ाए हुए था। प्राण नाथ मेहता, जो कि भगत सिंह के वकील थे, फांसी दिए जाने से दो घंटे पहले उनसे मिलने पहुंचे। उस वक्त भगत सिंह जेल की कोठरी नम्बर 14, जो कि उनकी लम्बाई 5 फ़ीट 10 इंच से थोड़ी ही बड़ी थी, के कच्चे, घास उगे फ़र्श पर शेर की माफ़िक़ चक्कर लगा रहे थे। उन्होंने श्री प्राण नाथ मेहता का स्वागत मुस्कुराते हुए, पूरे जोश के साथ 'इंक़लाब ज़िंदाबाद!' बोलते हुए करा और पूछा, ‘आप मेरी किताब 'रिवॉल्युशनरी लेनिन' लाए हैं या नहीं? मेहता जी ने बिना कुछ बोले वह किताब उनकी ओर बढ़ा दी। भगत सिंह एक छोटे बच्चे की भाँति उसी वक्त किताब पढ़ने लगे मानो संदेश दे रहे हों कि जीवन का हर पल कितना महत्वपूर्ण होता है और अंतिम पल तक भी सीखा जा सकता है।
कुछ पल बाद मेहता जी ने भगत सिंह से पूछा, ‘आप देशवासियों को कुछ संदेश देना चाहेंगे?’ भगत सिंह ने किताब पर से ध्यान हटाए बग़ैर कहा, ‘सिर्फ़ दो बातें, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद और 'इंक़लाब ज़िंदाबाद!’ साथ ही उन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस और नेहरू जी को केस में रुचि लेने के लिए धन्यवाद कहने के लिए कहा।
इसके बाद मेहता जी सुखदेव व राजगुरु के पास गए और उनसे मिले। राजगुरु ने उन्हें जेलर से केरम, जो उन्होंने कुछ दिन पहले उन्हें दिया था लेने के लिए कहा। तीनों क्रांतिकारी जीवन के अंतिम घंटों में इतने शांत थे मानो वे फाँसी पर, वे सिर्फ़ देश के लिए अगली पारी खेल सकें, इसके लिए झूलने जा रहे हैं।
दोस्तों भगत सिंग ने जेल के मुस्लिम सफ़ाई कर्मचारी बेबे से अनुरोध किया था कि वे अंतिम भोजन के रूप में उनके घर का बना भोजन खाना चाहेंगे। लेकिन भगत सिंह को बारह घंटे पूर्व फाँसी दिए जाने के निर्णय की वजह से की गई अतिरिक्त सुरक्षा की वजह से वे खाना लेकर जेल के अंदर नहीं जा पाए और भगत सिंह की यह इच्छा अधूरी रह गई। मेहता जी के जाते ही भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को बता दिया गया था कि उन्हें 12 घंटे पहले फाँसी दी जा रही है।
शाम लगभग 7 बजे फाँसी के लिए ले जाने पहुंचे अंग्रेजों से भगत सिंग ने पूछा, ‘क्या आप मुझे इस किताब का एक अध्याय भी ख़त्म नहीं करने देंगे?’ थोड़ी देर बाद तीनों क्रांतिकारियों को फांसी देने के लिए ले जाने के लिए जेल की कोठरियों से निकाला गया। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव तीनों ने अपने हाथ जोड़े और अपना प्रिय आज़ादी गीत गाने लगे-
कभी वो दिन भी आएगा कि जब आज़ाद हम होंगे,
ये अपनी ही ज़मीं होगी, ये अपना आसमाँ होगा!!!
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर