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फिर भी ज़िंदगी हसीन हैं...

उपलब्धियों से ज़्यादा ज़रूरी है आत्म संतुष्टि

उपलब्धियों से ज़्यादा ज़रूरी है आत्म संतुष्टि
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Aug 6, 2021

उपलब्धियों से ज़्यादा ज़रूरी है आत्म संतुष्टि!!!


दोस्तों कुछ घटनायें, कहानियाँ ऐसी होती हैं जो हमारे दिल को छू जाती हैं, हमें जीवन का असली मक़सद सिखा जाती हैं। आज मेरे दिन की शुरुआत ऐसी ही कहानी और इस रविवार ओलम्पिक में घटी एक घटना को पढ़ते हुए हुई। आईए आज के इस शो की शुरुआत हम उसी कहानी के साथ करते हैं-


प्रथम कहानी - एक सज्जन दिल्ली के बस स्टैंड पर बैठे-बैठे पंजाब से आने वाली बस का इंतज़ार कर रहे थे। अपने समय का सदुपयोग करने के लिए उन्होंने अपने बेग से एक किताब निकाली और वहीं बैठकर पढ़ने लगे। कुछ ही देर बाद एक लगभग 10 वर्षीय बच्ची उनके पास पहुँची और बोली, ‘साहब पेन ले लो ना, 10 रुपए के 4 पेन दे दूँगी।’ उन सज्जन ने उस बच्ची की बात को सुनने के बाद भी अनसुना सा कर दिया। वह पास ही खड़े एक छोटे से लड़के के सिर पर हाथ रखते हुए बोली, ‘ले लो ना साहब… बहुत भूख लगी है, आपके दिए हुए पैसे से मैं और मेरा छोटा भाई कुछ लेकर खा लेंगे।’ 


दोनों बच्चों की ओर देखते हुए वे सज्जन बोले, ‘मुझे पेन नहीं चाहिए।’ उन सज्जन का जवाब सुनते ही वह लड़की बड़ी मासूमियत से बोली, ‘अगर आप पेन नहीं लेंगे तो हम कुछ खाएँगे कैसे?’ बच्चों की मासूमियत देख उन सज्जन का दिल थोड़ा पसीज गया और वे बोले, ‘मुझे पेन नहीं चाहिए तो क्या हुआ, तुम्हें खाने को तो मिल ही सकता है।’ इतना कहते हुए उन सज्जन ने अपने बेग में हाथ डाला और उसमें रखे बिस्किट के दो पैकेट निकाल कर उन दोनों बच्चों की ओर बढ़ा दिए और बोले, ‘बच्चों यह खा कर आप अपनी भूख मिटा सकते हो।’ 


बच्चे सिर्फ़ पैसे या संसाधनों से ही गरीब थे, उस लड़की ने बिस्किट का एक पैकेट तुरंत उन सज्जन को वापस करते हुए कहा, ‘साहब, एक ही पैकेट काफ़ी है, हम दोनों उसे बाँट कर खा लेंगे।’ बच्ची का जवाब सुन वे सज्जन हैरान थे, उन्होंने हल्की मुस्कुराहट के साथ फिर से दोहराया, ‘दोनों पैकेट तुम रख लो।’  उनके इतना कहते ही उस छोटी सी लड़की ने आत्मा को झिंझोड़ने वाला उत्तर दिया, ‘साहब अगर मैं दोनों पैकेट ले लूँगी तो फिर आप क्या खाओगे?’


दूसरी कहानी - ओलम्पिक खेल 2021 में हुई ऊँची कूद अर्थात् हाई जंप प्रतियोगिता के फ़ाइनल मैच के दौरान एक अविस्मरणीय घटना देखने को मिली। इस मैच में क़तर के मुताज़ एसा बर्शिम एवं इटली के जियानमार्को ताम्बरी दोनों को ही संयुक्त विजेता घोषित किया गया और दोनों को ही स्वर्ण पदक से नवाज़ा गया। दोस्तों ओलम्पिक खेल के इतिहास में एथलेटिक इवेंट में ऐसा 109 वर्ष पूर्व 1912 के ओलम्पिक खेलों में हुआ था। 


फ़ाइनल मैच में मुताज़ एवं जियानमार्को दोनों ने ही 2.37 मीटर की छलांग लगाई और बराबरी पर रहे। रेफ़री ने दोनों ही खिलाड़ियों को 2.39 मीटर लक्ष्य के साथ तीन और मौके दिए लेकिन दोनों ही खिलाड़ी इस ऊँचाई को पार करने में असफल रहे। मैच रेफ़री ने दोनों खिलाड़ियों से पूछा कि क्या वे ‘जम्प ऑफ़’ के ज़रिए विजेता का निर्णय करना चाहेंगे। इस पर क़तर के मुताज़ एसा बर्शिम ने मैच रेफ़री से पूछा, ‘क्या हम दोनों इस स्वर्ण पदक को साझा कर सकते हैं?’ बर्शिम की पेशकश को ताम्बरी ने भी तुरंत स्वीकार लिया। दोनों की रज़ामंदी देख अधिकारी ने नियम को जाँच कर पुष्टि करते हुए कहा, ‘जी हाँ, बेशक गोल्ड मेडल आप दोनों के बीच साझा किया जा सकता है।’ उनके इतना कहते ही इटली के ताम्बरी दौड़ते हुए बर्शिम के पास पहुंचे और चिल्लाते हुए ख़ुशी के साथ पहले हाथ मिलाया और फिर उन्हें गले लगा लिया। कुछ पल पश्चात दोनों खिलाड़ी भावुक होकर रोने लगे। 


बर्शिम से जब इस विषय में पत्रकार द्वारा प्रश्न किया गया तो वो बोले, ‘मैं यहाँ आकर अपना सर्वश्रेष्ठ देना चाहता था, मुझे पता है कि मैंने जो प्रदर्शन किया, उसके लिए मैं गोल्ड मेडल का हक़दार हूँ। लेकिन ताम्बरी ने भी वही किया, इसलिए मुझे यह भी पता है कि वह भी गोल्ड मेडल के लायक़ है।’


दोस्तों दोनों ही कहानियों पर अगर आप गौर करेंगे तो पाएँगे कि दोनों कहानियों के हीरो ने खुद के फ़ायदे से आगे बढ़कर, दिल को छू जाने वाला निर्णय लिया, जो जाती, धर्म, रंग और अन्य सभी सीमाओं से परे, सिर्फ़ और सिर्फ़ इंसानियत पर आधारित था। जी हाँ दोस्तों, हर ऐसा निर्णय जो आपकी आत्मा के लिए अमृत का काम करे किसी भी मेडल या उपलब्धि से बड़ा होता है। संसाधन या जीतना आपको थोड़ी देर की ख़ुशी तो दे सकते हैं पर आत्मा के लिए अमृत देने का कार्य आपको पूर्ण संतुष्टि देता है।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर 

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