फिर भी ज़िंदगी हसीन हैं...
खुश रहना है तो आभारी रहना सीखिए
Mar 8, 2021
खुश रहना है तो आभारी रहना सीखिए…
स्कूल कंसलटेंसी के अपने कार्य के अंतर्गत हाल ही में एक स्कूल के कर्मचारियों का वार्षिक मूल्यांकन करा। आमतौर पर इस मूल्यांकन का इंतज़ार सभी कर्मचारियों को भी रहता है क्यूंकि इस मूल्यांकन से उनकी वार्षिक वेतनवृद्धि जुड़ी रहती है। लेकिन मेरा अनुभव है कि ज़्यादातर कर्मचारी इस मूल्यांकन और वेतनवृद्धि के लिए मानक प्रक्रिया अपनाने के बाद भी नाखुश रहते हैं। ऐसा ही हाल उस दिन स्कूल के कर्मचारियों का भी था।
स्कूल के एक कर्मचारी, जिन्होंने मात्र 4 माह पहले ही स्कूल में नौकरी करना शुरू किया था, को जब मैने बताया कि उन्हें 5% की वेतनवृद्धि दी जा रही है तो वह बेहद खुश थे। जब मैंने इस बारे में उनसे पूछा तो उन्होंने बताया कि उन्हें बिलकुल भी आशा नहीं थी कि मात्र 4 माह काम करने के बाद भी उन्हें स्कूल वेतनवृद्धि देगा। लेकिन उनकी यह ख़ुशी ज़्यादा देर तक नहीं रही, दिन के अंत तक उन्हें पता चला कि उनके ज़्यादातर साथियों को 7 से 15 प्रतिशत की वेतनवृद्धि मिली है तो वे परेशान हो गए।
मुझे उन सज्जन के व्यवहार से 1892 में हुए सायकॉलिजस्ट श्री विलियम जेम्स, जिन्हें हम सायकॉलाजी का जनक भी मानते हैं, की लिखी किताब ‘मनोविज्ञान के सिद्धांत’ की याद आ गई जिसमें उन्होंने कहा था, ‘किसी भी व्यक्ति की उपलब्धियाँ इस बात पर निर्भर करती हैं कि वह अपनी उपलब्धियों को किस परिपेक्ष्य में देखता है।’ जैसा कि उपरोक्त उदाहरण में वह सज्जन 5 प्रतिशत वेतनवृद्धि में इसलिए खुश थे क़्युंकि शुरुआत में वो इस वृद्धि की तुलना अपनी धारणा ‘मैंने तो 4 माह पहले ही जॉइन किया है इसलिए मुझे तो वेतन वृद्धि नहीं मिलेगी।’ से कर रहे थे। लेकिन बाद में उन्होंने जैसे ही इसकी तुलना दूसरों को मिली 7 से 15 प्रतिशत की वेतन वृद्धि से की तब उन्हें यह कम लगने लगी।
इसका विपरीत भी हो सकता था दोस्तों, सज्जन जिन्हें 5 प्रतिशत वृद्धि मिली थी वे खुश हो सकते थे क्यूंकि उन्हें वेतन बढ़ने की उम्मीद नहीं थी। इसके विपरीत 10 प्रतिशत वृद्धि मिला व्यक्ति सिर्फ़ इसलिए परेशान हो सकता था कि उसे 15 प्रतिशत वृद्धि की आशा थी।
ऐसा ही कुछ हम दोस्तों बच्चों के परीक्षा परिणाम में भी देखते हैं। बच्चा परीक्षा में 90 या 95 प्रतिशत अंक लेकर आया है लेकिन उसकी हमें ख़ुशी नहीं होती जबकि वह कक्षा में दूसरी या तीसरी रैंक पर आया, उसका हमें मलाल ज़रूर होने लगता है। हमें लगता है कि उसमें क्षमता थी, अगर वह थोड़ीसी और मेहनत करता तो प्रथम स्थान पा सकता था। ऐसा भी तो हो सकता था दोस्तों कि तीसरा स्थान उसे उस थोड़ीसी अतिरिक्त मेहनत की वजह से मिला हो। ऐसा ही कुछ 2012 के ओलम्पिक खेलों में भी देखने को मिला था। जिस धावक को सिल्वर मेडल मिला था वो गोल्ड मेडल के चूक जाने से दुखी थी इसके विपरीत जिसे कांस्य मेडल मिला था वो इसलिए खुश थी, कम से कम मुझे मेडल तो मिला। आदर्श रूप से, रजत पदक विजेता को कांस्य पदक विजेता से अधिक खुश होना चाहिए। लेकिन, मानवमन गणित की तरह काम नहीं करता वह भावना पर अधिक कार्य करता है। अगर इस आधार पर सोचा जाए तो आप क्या जीते से ज़्यादा ज़रूरी हो गया है आप किसके मुक़ाबले जीते हैं।
कॉर्नेल विश्वविद्यालय के थॉमस गिलोविच, टोलेडो विश्वविद्यालय के स्कॉट मैडी एवं मनोवैज्ञानिक विक्टोरिया मेडवेक के अनुसार इस घटना को प्रतिपक्षीय सोच के सिद्धांत से समझा जा सकता है। इसका मतलब है कि लोग उद्देश्य उपलब्धियों की तुलना ‘क्या हो सकता है…’ से करते हैं।
काउंटरफैक्टुअल सोच जिसे हम हिंदी में प्रतितथ्यात्मक सोच कहते हैं के कारण ऐसा होता है। इसे हम ‘पछतावे का मनोविज्ञान’ भी कह सकते हैं। यह एक ऐसी अवधारणा या मानव प्रवृति है जिसके तहत हम जीवन में घटने वाली घटनाओं की तुलना सम्भावित विकल्पों से करने लगते हैं।
मेरी नज़र में दोस्तों हमारे जीवन में ज़्यादातर नकारात्मक अनुभवों के पीछे यही सोच काम करती है। हम दैनिक जीवन में भी इसी सोच के आधार पर कार्य करते हैं। जो चीज़ें हमारे पास उपलब्ध होती हैं हम उसकी कभी सराहना नहीं करते हैं और जो हमारे पास नहीं है उसके लिए परेशान या दुखी होते रहते हैं।
दोस्तों अगर आप हमेशा ख़ुश रहना चाहते हैं तो आभारी रहना सीखिए, जो कुछ भी आपके पास है उसका, जितना आपको मिल पाया है उतने का। याद रखीयगा ‘व्हाट इफ़’ का कोई अंत नहीं है।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
dreamsachieverspune@gmail.com