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फिर भी ज़िंदगी हसीन हैं...

ठान लिया जाए तो कुछ भी असम्भव नहीं

ठान लिया जाए तो कुछ भी असम्भव नहीं
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Jan 13, 2022

ठान लिया जाए तो कुछ भी असम्भव नहीं !!!


आईए दोस्तों आज के लेख की शुरुआत 1940 में अमेरिका के टेनेसी प्रांत में एक बहुत ही गरीब अश्वेत परिवार में जन्मी एक लड़की की कहानी से करते हैं। पिता की सीमित आमदनी और दो शादियों से 22 बच्चों में 20वें नम्बर पर जन्मी इस लड़की का जीवन आसान नहीं था। 4 साल की उम्र में एक दिन पैरों में बहुत तेज़ दर्द होने पर अस्पताल ले जाने पर पता लगा कि इस बच्ची को पोलियो हो गया है और इसी वजह से उसके पैरों की ताक़त चली गई है। इलाज के दौरान डॉक्टर ने कह दिया था कि अब जीवन में कभी भी यह बच्ची सामान्य रूप से चल नहीं पाएगी।


विकलांग बच्ची अब केलिपर्स के सहारे चलती थी। लेकिन सकारात्मक और कभी भी हार ना मानने वाला नज़रिया रखने वाली माँ, हार मानने के लिए तैयार नहीं थी। सीमित पैसों की वजह से माँ के लिए महँगा इलाज करवाना सम्भव नहीं था। वह 50 किलोमीटर दूर अस्पताल में बच्ची को ले जाकर दिखाती थी और फिर घर पर ही डॉक्टर द्वारा बताई गई एक्सरसाइज़ अपनी लड़की को करवाती। 


दूसरे बच्चों को खेलते देख इस लड़की का मन भी खेलने का होता था तो उसकी माँ हमेशा उसे प्रेरित करते हुए कहती थी, ‘अगर ठान लिया जाए तो इस दुनिया में कुछ भी नामुमकिन नहीं है, तुम कुछ भी कर सकती हो।’ माँ की बात सुन इस लड़की ने एक दिन माँ से कहाँ, ‘माँ, क्या मैं दुनिया की सबसे तेज धावक बन सकती हूँ?’ माँ ने उससे कहा, ‘ज़रूर, बस ईश्वर पर विश्वास रखो, मेहनत और लगन के साथ प्रयास करो। इनकी सहायता से तुम जो चाहो वह प्राप्त कर सकती हो।’


माँ के द्वार दी गई यह प्रेरणा काम कर गई। 9 साल की उम्र में एक दिन इस बच्ची ने चलने के अपने सहारे अर्थात् केलिपर्स को उतार फेंका और चलने का प्रयास करने लगी। इस प्रयास में वह कई बार गिरी, उसे चोट भी लगी लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी और लगातार प्रयास करती रही। हार ना मानने के नज़रिए के साथ वह लगभग 2 वर्षों तक सतत प्रयास करती रही और अंत में बिना सहारे के आराम से चलने में कामयाब हो गयी। 


13 वर्ष की उम्र में इस लड़की ने बालिका दौड़ प्रतियोगिता में हिस्सा लेकर अपने सपने को पूरा करने का प्रयास करा लेकिन उस प्रतियोगिता में उसे अंतिम स्थान मिला। इस बार भी उसने हार नहीं मानी और लगातार प्रयास करती रही। कई प्रतियोगिताओं में अलग-अलग स्तर पर हारने के बाद एक दिन वह दिन भी आया जब उसने दौड़ में प्रथम स्थान प्राप्त करा।


15 वर्ष की उम्र में इस लड़की ने टेनेसी राज्य विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया जहां उसे कोच के रूप में एड टेम्पल मिले। टेम्पल को उसने अपने मन की बात बताते हुए कहा, ‘कोच, मैं सबसे तेज़ धाविका बनना चाहती हूँ, क्या यह सम्भव है?’ कोच ने उसकी बात को गम्भीरता से लेते हुए कहा, ‘अगर तुम सौ प्रतिशत दृढ़ रहते हुए, इसी इच्छा शक्ति के साथ प्रयास करो तो ज़रूर। तुम्हें कोई भी अपने सपने को पूरा करने से रोक नहीं सकता और मैं तुम्हारी इसमें मदद करूँगा।’


इसके बाद कोच के मार्गदर्शन में इस लड़की ने कड़ी मेहनत करना प्रारम्भ किया और जल्द ही उसे सफलता मिलने लगी। कड़ी मेहनत की वजह से उस महिला को 1956 में ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न में हुए ओलम्पिक में भाग लेने का मौक़ा मिला जहाँ उसने 400 मीटर रिले रेस में ब्रोंज मेडल जीता। इसके बाद 1960 में रुस में हुए ओलम्पिक में उसका सामना उस वक्त की दुनिया की सबसे तेज़ धावक जुत्ता हेन से हुआ, जिन्हें उस वक्त तक कोई भी हरा नहीं सका था। लेकिन 100 मीटर की पहली रेस में इस महिला ने जुत्ता हेन को हरा कर स्वर्ण पदक जीता। उसके बाद वह 200 मीटर की दूसरी रेस में भी जुत्ता हेन को हरा कर स्वर्ण पदक विजेता बनी। इस तरह अब उनके पास 2 स्वर्ण पदक थे। इसके बाद तीसरी और उस ओलम्पिक की इस महिला खिलाड़ी की अंतिम रेस 400 मीटर की रेलें रेस थी, जिसमें रेस का आख़री हिस्सा सबसे तेज़ धावक ही दौड़ता है। यहाँ भी इस महिला का मुक़ाबला जुत्ता हेन से ही था। उनकी टीम के तीन लोगों ने आपस में बेटन बदलते हुए अच्छे से रेस दौड़ी और अंत में बेटन इस महिला को थमा दी। लेकिन दौड़ना शुरू करते ही गलती से बेटन उनके हाथ से गिर गई। इस महिला ने पीछे से तेज़ी से आती जुत्ता हेन को देखा और जल्दी से बेटन उठाकर मशीनी तेज़ी से दौड़ना शुरू कर दिया और तीसरी बार भी जुत्ता हेन की टीम को हराकर एक बार फिर गोल्ड मेडल जीत लिया।


दोस्तों, 1960 के ओलम्पिक में तीन गोल्ड मेडल जीतने वाली यह महिला कोई और नहीं, बल्कि 60 के दशक की सबसे तेज धाविका विल्मा रुडोल्फ है। जिन्होंने विकलांगता को हराकर दुनिया की सबसे तेज़ धाविका बनने का अपना सपना पूरा करा था। विल्मा ने अपनी सभी उपलब्धियों का श्रेय हमेशा अपनी माँ को दिया। उनका मानना था कि यदि माँ ने त्याग नहीं किया होता और उन्हें यह विश्वास नहीं दिलाया होता कि ‘कुछ भी असंभव नहीं है’ तो आज वे इस मुकाम तक नहीं पहुंच पाती। 1994 में विल्मा ने दुनिया को अलविदा कहा।


दोस्तों, इस कहानी से हमें दो महत्वपूर्ण सीख मिलती हैं। पहली, अपने बच्चों को जीवन में कभी भी हतोत्साहित ना करें बल्कि उन्हें सर्वश्रेष्ठ बनने और करने के लिए प्रेरित करें और दूसरी, अगर पूर्ण विश्वास कर ठान लिया जाए और उसके लिए अपना सर्वस्व देते हुए सही दिशा में प्रयास किया जाए तो कुछ भी असम्भव नहीं है। 


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर 

dreamsachieverspune@gmail.com

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