फिर भी ज़िंदगी हसीन हैं...
देना ही पाना है


Sep 23, 2021
देना ही पाना है !!!
दोस्तों हाल ही में मुझे एक समाजसेवी संस्था द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में भाग लेने का मौक़ा मिला। कार्यक्रम का उद्देश्य जरूरतमंद लोगों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करना था। कार्यक्रम से लौटने के बाद, मैं बड़ा दुविधा में था और सोच रहा था कि उक्त कार्यक्रम का मूल मक़सद क्या था, सेवा करना या लोगों को बताना कि हम सेवा कर रहे हैं? मेरे इस प्रश्न का उत्तर मुझे संस्था के एक सदस्य, जो मेरे पूर्व परिचित भी थे से मिल गया। कार्यक्रम होने के तीन दिन बाद उनका फ़ोन आया और वे बोले, ‘यार तुमने इस पर अभी तक आर्टिकल नहीं लिखा?’ मैंने तुरंत पूछा, ‘किस पर?’ तो वे बोले, ‘उस दिन वाले कार्यक्रम पर।’ उनकी बात सुनते ही मुझे मेरे प्रश्न का जवाब मिल गया। मैंने तुरंत उनसे कहा, ‘हमारी ऐसी कोई बात नहीं हुई थी कि आप मुझे कार्यक्रम में बुलाएँगे तो मैं आपकी संस्था और उसके द्वारा किए गए कार्य पर कोई लेख लिखूँगा।’ मेरे द्वारा दिए गए जवाब पर उनकी प्रतिक्रिया देख कर ऐसा लग रहा था मानो वे कहना चाह रहे हैं, ‘बात नहीं हुई थी तो क्या हुआ, दुनिया में एक हाथ दे और एक हाथ ले का ही तो नियम चलता है।’ ख़ैर इस घटना को यहीं छोड़ते हैं…
दोस्तों अकसर आप देखेंगे कि लोग देने से ज़्यादा, देने का ढोंग करते हैं। इस बारे में मेरा मत बिलकुल अलग है, मेरी नज़र में तो ‘देना ही पाना ’ है। शायद आप अभी मेरी बात समझ नहीं पाए होंगे चलिए मैं आपको एक बहुत प्यारी कहानी के माध्यम से इसे बताने का प्रयास करता हूँ…
राजेंद्र आज बहुत खुश था और खुश हों भी क्यों ना, ‘अपनी मन्नत अनुसार मंदिर में सवा मन लड्डू का भोग चढ़ाकर ढेर सारा दान पुण्य जो कर के आ रहे था । इतना ही नहीं दोस्तों, रिश्तेदारों, पंडितों और अन्य लोगों ने भी तो उनके इस प्रयास को कितना सराहा था।
मन ही मन खुद की बनाई ‘दानवीर’ की छवि के साथ मदमस्त हो राजेंद्र अपने बच्चे को साथ ले मंदिर से घर जाने के लिए निकला। मंदिर से निकलते ही बच्चे की नज़र मंदिर प्रांगण में ग़ुब्बारा दे रहे एक व्यक्ति पर गई। बच्चा ग़ुब्बारे के लिए पिता से ज़िद करने लगा। पिता को बच्चे डिमांड अनुचित लगी और उन्होंने बच्चे को पहले समझाने का प्रयास करा लेकिन जब वह नहीं माना तो पिता ने पहले उसको डाँटा लेकिन और ज़्यादा ज़िद करने पर एक-दो थप्पड़ मार दिए। थप्पड़ पड़ते ही बच्चे ने और ज़्यादा रोना और पिता ने और ज़्यादा जोर से डाँटना शुरू कर दिया।
ग़ुब्बारा वाला भी इस घटनाक्रम को देख रहा था। वह तुरंत उस बच्चे के पास पहुँचा और उसे एक ग़ुब्बारा पकड़ा दिया। राजेंद्र को ग़ुब्बारे वाले की हरकत पसंद नहीं आयी और उसने उसे डाँटते और झिड़कते हुए कहा, ‘तुम लोग तो बस ऐसा ही मौक़ा तलाशते हो, जैसे ही बच्चे को मचलते हुए देखा तुरंत उसके पास पहुँच गए। नहीं लेना हमें ग़ुब्बारा।’ इतना कहते हुए राजेंद्र ने बच्चे के हाथ से ग़ुब्बारा छीना और वापस ग़ुब्बारे वाले को देने का प्रयास करने लगा।
ग़ुब्बारे वाले ने राजेंद्र से ग़ुब्बारा लेकर वापस बच्चे के हाथ में पकड़ा दिया और एकदम शांत भाव के साथ हल्की मुस्कुराहट के साथ बोला, ‘मैं यहाँ ग़ुब्बारे बेचने नहीं, बाँटने आता हूँ।’ ‘मतलब?’ राजेंद्र ने ग़ुब्बारे वाले से प्रश्न किया। ग़ुब्बारे वाला उसी मुस्कुराहट के साथ बोला, ‘एक दिन मुझे इसी स्थान पर एक घटना से समझ आया था कि ईश्वर तो बच्चों में है। इसीलिए सप्ताह में एक दिन सौ रुपए के ग़ुब्बारे लेकर आता हूँ, उनमें गैस भरता हूँ और उसके बाद एक ग़ुब्बारा मंदिर के दरवाज़े पर बांधने के बाद, बचे हुए सारे यहाँ बच्चों में बाँट देता हूँ।’ राजेंद्र उसकी बात सुन हैरान था पर उसके भावों को नज़रंदाज़ करते हुए ग़ुब्बारे वाले ने अपनी बात बोलना जारी रखते हुए कहा, ‘मुझे नहीं पता मैं सही कर रहा हूँ या नहीं। पर मेरे भगवान यह छोटे-छोटे बच्चे हैं और ग़ुब्बारा मेरा प्रसाद। मैं तो बस मेरे भगवान को प्रसाद चढ़ा रहा हूँ।’ ग़ुब्बारे वाले की बात सुनते ही एकाएक राजेंद्र को भगवान को प्रसाद स्वरूप चढ़ाए सवा मन लड्डू बहुत कम लगने लगे।
आशा करता हूँ आप इस कहानी का मूल मक़सद तो समझ ही गए होंगे। दोस्तों किसी की मदद करके हम कोई बहुत बड़ा काम नहीं करते हैं। बल्कि हमें तो ईश्वर का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उसने हमें लोगों की मदद करने लायक़ बनाया है। असल में लोगों को की गई मदद हमें ही खुश और संतुष्ट होने का मौक़ा देती है क्यूंकि खुशियां बांटने से ही बढ़ती है और इसीलिए ही तो मैंने पहले कहा है, ‘देना ही पाना है!!!’
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

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