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फिर भी ज़िंदगी हसीन हैं...

दोस्त : एक हाथ, जो हमेशा रहे साथ

दोस्त : एक हाथ, जो हमेशा रहे साथ
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July 9, 2021

दोस्त : एक हाथ, जो हमेशा रहे साथ...


आज एक विद्यालय में शिक्षकों के साथ कोविद की दूसरी लहर के बाद पहली बार चर्चा करने का मौक़ा मिला। शिक्षकों से मैं पहले से ही परिचित था इसलिए बातचीत की शुरुआत स्वास्थ्य और हाल-चाल पूछने के साथ शुरू हुई। ज़्यादातर शिक्षकों ने कोविद की दूसरी लहर के दौरान कठिन परिस्थितियों का सामना किया था और सभी के पास उस विपरीत समय के अच्छे और बुरे दोनों ही अनुभव थे।


बातचीत के दौरान एक शिक्षक ने मुझसे प्रश्न करते हुए कहा, ‘सर, कोविद के दौरान कौन असल में अपना है और कौन पराया इसका बहुत अच्छे से एहसास हो गया है। इन पराए, मतलबी रिश्तों का क्या किया जाए? उन्हें बनाए रखना चाहिए या छोड़ देना चाहिए?’ वैसे उनका प्रश्न तो बड़ा स्पष्ट था और उनकी पीड़ा उनके चेहरे के हाव-भाव से स्पष्ट समझ आ रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे वे रिश्ता खत्म करने का निर्णय ले चुके हैं, पर मेरा मानना है कि जहां तक सम्भव हो, रिश्तों को बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए। मैंने उन्हें थोड़ा विस्तार से बताने के लिए कहा।


उन्होंने कहा, ‘सर, हम तीन मित्र थे, नहीं पहले दो मित्र थे, मैं और महेश। फिर हम दोनों का परिचय एक कॉमन व्यक्ति के ज़रिए सुरेश से हो गया।’ आगे बढ़ने से पहले मैं आपको बता दूँ कि यहाँ दोनों ही नाम पहचान छिपाने के उद्देश्य से बदल दिए गए हैं। उन शिक्षक ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘सर, कोरोना की दूसरी लहर के दौरान महेश के पूरे परिवार को कोरोना हो गया था और इस विषम परिस्थिति में उन्हें हमारे साथ की ज़रूरत थी। उन्होंने हम दोनों मित्रों को फ़ोन किया और अपनी परेशानी बताते हुए हमसे मदद माँगी। एक मित्र के नाते मैंने उनकी मदद करने का निर्णय लिया और फिर मैंने सुरेश से चर्चा करके आगे की योजना बनाई और महेश के घर पहुँच गया। योजना के अनुसार वहाँ पहुँचकर मैंने फिर से सुरेश को फ़ोन किया लेकिन वह फ़ोन ही नहीं उठा रहा था। मैंने अकेले ही कोरोना गाइडलाइन का पालन करते हुए योजनानुसार आगे बढ़ने का निर्णय लिया और एम्बुलेंस के द्वारा एक-एक करके मित्र के परिवार के तीन सदस्यों को अस्पताल में भर्ती करवाया। समय पर उपचार मिलने की वजह से परिवार के सभी सदस्य तो ठीक हो गए लेकिन मेरा अभिन्न मित्र महेश कोरोना से जंग हार गया।’


दो मिनिट की चुप्पी के बाद उन्होंने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘सर, उन तीन दिनों में सुरेश ने मुझसे या मित्र से सम्पर्क करने का कोई प्रयास नहीं करा और ना ही मेरा फ़ोन उठाया। उसके घर पर बात करने पर कहा गया कि उनकी तबियत ठीक नहीं है और कोरोना के दौरान उनका घर से निकलना भी सही नहीं है। पहले तो मुझे लगा शायद वह वाक़ई बीमार हैं पर बाद में मुझे पता चला वे सिर्फ़ बहाना बना रहे हैं। सर, अगर मुझे सुरेश का साथ समय पर मिल जाता तो शायद महेश आज भी मेरे साथ होता। दो माह तक दूर रहने के बाद अब सुरेश फिर से मेरे साथ रहना चाहता है, आप ही बताइए मैं क्या करूँ?’


मैंने सीधे जवाब देने के स्थान पर उन्हें कहानी सुनाने का निर्णय लिया और कहा, ‘जीतू और सीटू दोनों दोस्त एक ही कॉलेज में पढ़ा करते थे। एक बार दोनों ने मिलकर परीक्षा पूरी होने के बाद साथ में घूमने जाने का प्लान बनाया। लेकिन दुविधा यह थी कि कहाँ घूमने ज़ाया जाए? बड़ी मशक़्क़त के बाद दोनों ने जंगल सफ़ारी जाने का निश्चय किया।


जंगल सफ़ारी में कैम्पिंग के दौरान एक दिन सुबह-सुबह जीतू और सीटू दोनों प्रकृति के साथ समय बिताने के उद्देश्य में जंगल में घूमने चले गए। जंगल के खूबसूरत नज़ारों को देखते-देखते कब वे घने जंगल में प्रवेश कर गए उन्हें पता ही नहीं चला। अचानक दोनों की निगाह सामने से आते एक बड़े से भालू पर पड़ी। उसे देखते ही दोनों कुछ पल के लिए घबरा गए। सीटू दौड़कर पास ही के एक पेड़ पर चढ़ गया। जीतू ने अपना हाथ ऊपर उठाते हुए उससे मदद माँगते हुए ऊपर खींचने के लिए कहा, पर सीटू ने उसकी बात को अनसुना कर दिया और पेड़ पर और ऊँचा चढ़ गया। बचपन में जीतू ने सुना था कि जंगली जानवर मृत जीवों को खाना पसंद नहीं करते हैं। वह तुरंत ज़मीन पर उल्टा लेट गया और भालू के पास आते ही उसने साँस रोक ली। कुछ ही पलों में भालू जीतू के पास आ गया और कुछ देर उसके चेहरे को सूंघ कर, उसे मृत मान वहाँ से चला गया।  


भालू के जाने के कुछ मिनिट बाद सीटू पेड़ से नीचे उतरा और जीतू के पास जाकर बोला, ‘भालू तुम्हारे इतने पास आकर तुम्हें सूंघ कर वापस क्यों चला गया? जीतू सीटू की ओर देखते हुए मुस्कुराते हुए बोला, ‘वह मुझे सूंघ कर नहीं मेरे कानों में कुछ बोल कर गया है।’ सीटू को लगा जीतू मज़ाक़ कर रहा है। उसने भी मुस्कुराते हुए कहा, ‘तो भालू अंकल तुम्हें क्या बोल रहे थे?’ जीतू ने गम्भीर आवाज़ में कहा, ‘जो दोस्त विपरीत परिस्थिति में काम ना आ सके उनसे दूर रहना चाहिए।’


कहानी पूरी होते ही मैंने उन शिक्षक की ओर देखा, उनका चेहरा मानो कह रहा था, ‘सर, अब आगे कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है। मुझे मेरा जवाब मिल गया है।’


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर 

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