फिर भी ज़िंदगी हसीन हैं...
नज़रिया : ज़िंदगी जीने का


May 11, 2021
नज़रिया : ज़िंदगी जीने का...
‘हम ज़िंदगी भर ज़मीनों और मकानों की क़ीमत पर इतराते रहे, हवा ने एक बार अपनी क़ीमत क्या माँगी, ख़रीदे हुए मकान और ज़मीनें बिकने लगी।’ व्हाट्सएप पर आए इस मैसेज ने मुझे कुछ पलों के लिए हिला दिया था। मैं सोच रहा था कि पर्यावरण जिसे हमने मुफ़्त का मान उसके संतुलन को बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, उसे अब कुदरत अपने तरीक़े से वापस संतुलित कर रही है। अभी मैं इन विचारों में उलझा ही हुआ था कि मुझे घरवालों ने याद दिलाया कि बाज़ार जाकर दवाई लानी है।
मैं तुरंत आवश्यक दवाई लेने के लिए निकलना पड़ा। सोसायटी से बाहर निकलते ही सबसे पहले मेरी नज़र कुछ बच्चों पर पड़ी, जो शाम का समय होने के कारण खेलने में मग्न थे। उन्हें इस तरह कोरोना काल में निश्चिंतता से खेलते देख मेरे मन में कुछ प्रश्न आने लगे। वहीं खड़े एक बच्चे के पिता, जो कि मेरे परिचित भी थे शायद मेरी दुविधा समझ गए और कहने लगे, ‘मैं समझ पा रहा हूँ भटनागर जी कि आप क्या सोच रहे है, पर क्या करें इस फ़्लैट में बच्चों को आख़िर कब तक और कैसे क़ैद करके रखें?’ मैं सिर्फ़ मुस्कुरा दिया और उनकी बात का समर्थन करते हुए आगे बढ़ गया।
सोसायटी से बाहर निकलते ही मुझे काफ़ी लोग चहलक़दमी करते हुए नज़र आए। ऐसा ही हाल मुख्य रास्ते और दवाई की दुकान का भी था। दवाई की दुकान पर लोग दैनिक ज़रूरतों के सामान के साथ-साथ सब्ज़ी, फल, दूध, दही, आईसक्रीम आदि सामान की उपलब्धता पर भी चर्चा कर रहे थे। इसी वजह से दुकानदार को हर ग्राहक को आवश्यकता से अधिक समय देना पड़ रहा था। कुछ ऐसे भी लोग थे जो घर से सिर्फ़ इसलिए बाहर निकले थे क्यूँकि चारदीवारी के अंदर बंद रहना उन्हें रास नहीं आ रहा था।
घर आने के बाद काफ़ी देर तक मेरे मन में बाज़ार और सोसायटी के बाहर का दृश्य चल रहा था। मैं सोच रहा था कि आख़िर क्या कारण है कि हम अपने परिवार के साथ, इतने प्यार से बनाए आशियाने में रुक नहीं पा रहे हैं? चलिए मान लेते हैं, कुछ लोगों के साथ उनकी मजबूरियाँ होंगी, लेकिन बाक़ी लोग? जिस घर को हम अपने जीवनभर की कमाई, ढेर सारा लोन और अपना क़ीमती समय या यूँ कहूँ अपने जीवन का कुछ हिस्सा, कुछ साँसें लगाकर बनाते है, आज हम उसी में रुक नहीं पा रहे हैं।
हर किसी का घर से बाहर निकलने का अपना कारण है और दोस्तों सही और ग़लत का फ़ैसला करना मेरे हाथ में भी नहीं है या यह कहना बेहतर होगा उसके लिए मैं सक्षम भी नहीं हूँ। मैं सिर्फ़ यह सोच रहा था कहीं हम लोगों ने अपनी प्राथमिकताएँ तो ग़लत नहीं बना ली हैं? हम ग़लत लक्ष्य लेकर तो नहीं चल रहे हैं? आख़िर किस तरह का परिवर्तन हम अपने जीवन में लाएँ जिससे हम कम से कम संसाधनों के साथ बेहतरीन उच्च गुणवत्ता वाला जीवन जी सकें।
वैसे दोस्तों मेरा मानना है कि अगर आप एक खुशहाल जीवन जीना चाहते हैं तो आपको जीवन के निम्न छः पहलुओं को साधना पड़ता है। 1) शारीरिक (फ़िज़िकल), 2) मानसिक (मेंटल), 3) भावनात्मक (इमोशनल), 4) सामाजिक (सोशल), 5) वित्तीय (फाइनेंशियल) एवं 6) आध्यात्मिक (स्पिरिचूअल)।
अगर मैं अपनी बात करूँ दोस्तों, तो इस लॉकडाउन या पूरे कोरोना काल में मुझे सिर्फ़ और सिर्फ़ वित्तीय नुक़सान हुआ है। लेकिन एक बात और सही है कि इस दौरान मैंने कम से कम संसाधनों के साथ जीना भी सिखा है और साथ ही यह भी समझा है कि मेरी अधिकतर वित्तीय ज़रूरतें विलासिता के संसाधनों के लिए थी। इसके अलावा बाक़ी पाँचों पहलू में मैंने पिछले एक वर्ष में काफ़ी कुछ नया सीखा, जैसे योग, मेडिटेशन, डिजिटल मार्केटिंग, मोबाईल और इंटरनेट के माध्यम से परिवार व समाज से जुड़कर सेवा करना, उनका ध्यान रखना, किताबें पढ़ना आदि। इसी लॉकडाउन ने मुझे भागदौड़ भरी ज़िंदगी से सुकून के कुछ पल चुराकर अपने घर वालों के साथ समय बिताने का मौक़ा और रेडियो पर ‘ज़िंदगी ज़िंदाबाद’, और अपने लेख ‘फिर भी ज़िंदगी हसीन है…’ के साथ ही यूट्यूब व अन्य सोशल प्लेटफ़ॉर्म के माध्यम से आपसे जुड़कर अपने विचार साझा करने का मौक़ा भी दिया है।
दोस्तों आज के इस लेख के माध्यम से मैं आपको सिर्फ़ इतना कहना चाहूँगा कि ‘ज़िंदगी है’ तो बाक़ी सब है। इसलिए छोटी-छोटी चीजों के लिए रोने, परेशान होने के स्थान पर इस समय में अपना और अपनों का ख़याल रखें और सुरक्षित रहते हुए उपरोक्त छः पहलुओं में संतुलन बैठाते हुए अपनी प्राथमिकताएँ तय करें और खुश रहें।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर
dreamsachieverspune@gmail.com

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