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फिर भी ज़िंदगी हसीन हैं...

निंदक नियरे राखिए

निंदक नियरे राखिए
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May 16, 2021
निंदक नियरे राखिए…


कुछ दिन पूर्व एक सज्जन का फ़ोन आया और बातचीत के दौरान उन्होंने मुझसे कहा, ‘सर, मैंने एक किताब लिखी है और मैं चाहता हूँ कि एक बार आप उसे पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया दें।’ शुरू में मैंने असमर्थता जताई और उनसे माफ़ी माँगी लेकिन वे अड़े रहे और अंततः मुझे उनके निवेदन को स्वीकारना पड़ा।

किताब पुरी पढ़ने के बाद मैंने उन्हें बधाई और किताब की समीक्षा दी। समीक्षा पढ़ने के बाद उनका थोड़ा सा नाराज़गी भरा फ़ोन मेरे पास आया और वे बोले, ‘सर, मैंने इतनी मेहनत से किताब लिखी है और आप ने पूरे एक अध्याय पर ही प्रश्न खड़ा कर दिया।’ मैंने उन्हें समझाने का प्रयत्न करा कि सर आपकी किताब बहुत अच्छी है, आपने मुझसे उसकी समीक्षा करने के लिए कहा था और मुझे उस अध्याय को पढ़ते समय ऐसा लग रहा था कि कहीं ना कहीं लिखी गई बातें हमारी संस्कृति का ग़लत तरीक़े से चित्रण करती है। खैर, उनकी पुरी बात का निष्कर्ष सिर्फ़ इतना था कि वे मुझसे समीक्षा के नाम पर सिर्फ़ अपनी तारिफ़ सुनना चाहते थे। चलिए इस घटना को यहीं छोड़ते हैं।

दोस्तों, कई लोग होते है जो सिर्फ़ तारिफ़ सुनना पसंद करते हैं। लेकिन मेरा यह मानना है सिर्फ़ तारिफ़ सुनना आपकी ग्रोथ को धीमा कर देता है क्यूँकि अब आप किसी भी चीज को सिर्फ़ तब सीख पाते है जब आपको उसकी ज़रूरत महसूस होती है या जब आप पुरी मेहनत करने के बाद भी मनचाहा परिणाम नहीं पा पाते हैं। इसके विपरीत सफल लोगों का इतिहास बताता है कि उन्होंने हमेशा तारीफ़ करने वालों से ज़्यादा निंदा अथवा अपनी कमी बताने वाले लोगों को अपने पास रखा है। आइए आज मैं आपको आचार्य विनोबा भावे जी के जीवन की एक घटना सुनाता हूँ।

आचार्य विनोबा भावे जी का जन्म 11 सितम्बर 1895 को हुआ था। आचार्य विनोभा भावे जी हमारे देश के प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता तथा प्रसिद्ध गांधीवादी नेता थे। 15 नवम्बर 1982 को 87 वर्ष की उम्र में उनका निधन हुआ। वे जीवन भर समाज की बेहतरी के लिए कार्य करते रहे।

स्वतंत्रता संग्राम के समय से ही वे काफ़ी सक्रिय थे इसी वजह से उनके अनुयायियों और समर्थकों की संख्या बहुत ज़्यादा थी। इसी वजह से उनके आश्रम में नित्य ढेर सारी चिट्ठियाँ आतीं थी और वे भी हर चिट्ठी को बहुत ध्यान से पढ़ा करते थे और समय से उत्तर देना नहीं भूलते थे फिर चाहे वह चिट्ठी किसी साधारण इंसान की ही क्यूँ ना हो। एक दिन आश्रम के वरिष्ठ सदस्य उनके साथ बैठे हुए थे और आचार्य विनोबा भावे जी उनसे बात करते-करते चिट्ठियाँ पढ़ते और छाँटते जा रहे थे। अचानक एक चिट्ठी सरसरी निगाह से पढ़ने के बाद आचार्य ने कूड़ेदान में डाल दी।

आश्रम के वरिष्ठ सदस्य को उनका यह व्यवहार थोड़ा सा अटपटा लगा। उन्होंने विनोबा भावे जी से पूछा, ‘आचार्य, आप हर पत्र को बडे ध्यान से पढ़ते है, उसका जवाब देते हैं। आख़िर यह पत्र किसका था और इसमें ऐसा क्या था जो आपने इसे फाड़कर कूड़ेदान में फेंक दिया।’ विनोबा भावे जी उन वरिष्ठ सदस्य की ओर देखते हुए बोले, ‘महात्मा गांधी जी का पत्र था।’ अब वे वरिष्ठ सदस्य और ज़्यादा आश्चर्य चकित थे। वे तुरंत एक ही साँस में बोले, ‘आचार्य जी, आपने बापू का पत्र फाड़ दिया! उसमें ऐसा क्या लिखा हुआ था?’ विनोबा भावे जी बोले, ‘ऐसे ही, कुछ विशेष नहीं था।’ उन सज्जन से रहा नहीं गया, उन्होंने तुरंत कूड़ेदान से फटे हुए पत्र के टुकड़े निकाले और उसे पढ़ने के बाद बोले, ‘आचार्य, यह तो संग्रहणीय पत्र था, इसे फाड़ना नहीं चाहिए था, यह तो हमारे लिए धरोहर है। बापू ने आपके कार्य की प्रशंसा करी थी।’

वरिष्ठ सदस्य की बात सुनकर विनोबा भावे जी ने एकदम सीधे और सपाट शब्दों में कहा, ‘देखो वह पत्र ही क्या जिसमें सिर्फ़ और सिर्फ़ आपकी बढ़ाई ही लिखी हो। यह हमारे चित्त को गंदा करके, अहंकार उत्पन्न कर सकता है।’ इतना कहते ही आचार्य विनोबा भावे जी मुस्कुराने लगे।

जी हाँ दोस्तों इसीलिए तो कबीर ने भी कहा है, ‘निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।’ अर्थात् निंदा करने वालों को हमेशा अपने पास रखना चाहिए क्योंकि वे बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बताकर, हमें हमारे स्वभाव या कार्य को बेहतर बनाने में मदद करते हैं।

इसी तरह दोस्तों, आधुनिक प्रबंधन सूत्रों में भी सिखाया जाता है, ‘अगर किसी को खत्म करना है तो उसके आस-पास ढेर सारा शहद ढोल दीजिए, बाक़ी काम चींटियाँ कर जाएँगी।’ अर्थात् अगर किसी को खत्म करना हो तो उसकी इतनी तारीफ़ करो, इतनी तारीफ़ करो कि वह उस तारीफ़ में डूबकर ही खत्म हो जाए। तो आज से ध्यान रखिएगा दोस्तों, जीवन में आगे बढ़ने के लिए जितनी आवश्यक प्रशंसा है उतना ही ज़रूरी अच्छे लोगों द्वारा बताए गए दोष सुनना है।

-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

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