फिर भी ज़िंदगी हसीन हैं...
परम्पराएँ - बंधन या सुखी जीवन का मंत्र
Nov 17, 2021
परम्पराएँ - बंधन या सुखी जीवन का मंत्र
चलिए दोस्तों, आज के लेख की शुरुआत एक काल्पनिक कहानी के साथ करते हैं। कैंट के उत्तर पश्चिम में स्थित सेना की कमांड चौकी में कंक्रीट की बनी एक बड़ी विशिष्ट बेंच थी। इस साफ़ और चमचमाती बेंच का उपयोग कोई भी व्यक्ति बैठने के लिए नहीं किया करता था बल्कि पिछले 80 वर्षों से चौबीसों घंटे इस बेंच की रखवाली 4 सैनिक, आठ-आठ घंटे की 3 शिफ़्टों में किया करते थे। इन 80 वर्षों में कई सेना या कमांड प्रमुख वहाँ आए लेकिन किसी ने भी इस परम्परा के पीछे की वास्तविकता को जानने का प्रयास नहीं किया।
एक दिन इस कमांड में एक युवा अधिकारी की नियुक्ति हुई। उन्होंने सेना की ताक़त और उत्पादकता बढ़ाने के उद्देश्य से सेना द्वारा किए जा रहे प्रत्येक कार्य को जाँचना शुरू किया। एक दिन सुबह-सुबह जब उनका ध्यान बेंच की रखवाली करते 4 सैनिकों की टुकड़ी की ओर गया, तो उन्होंने इस बारे में सम्बंधित अधिकारी से प्रश्न किया पर वे इसका कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पाए। उन्होंने इस विषय में कई वरिष्ठ अधिकारियों से चर्चा करी, पर कोई भी इस बारे में ज़्यादा कुछ बता नहीं पाया सिवाय इसके कि यह हमारी टुकड़ी की परम्परा है और हमारे पूर्व कमांडरों ने हमें ऐसा ही करने का निर्देश दिया था।
नए युवा अधिकारी ने गहराई में जाकर इस परम्परा के पीछे की सच्चाई जानने का निर्णय लिया। काफ़ी खोजबीन के बाद उन्हें एक पुराना दस्तावेज मिला जिसमें पूर्व कमांडर द्वारा दिए गए निर्देश थे। युवा कमांडर ने जब उन निर्देशों को विस्तार से पढ़ा तो उसे पता चला कि पूर्व में कमांड का इलाक़ा जंगल के बीच में आता था और उस वक्त कंक्रीट का जो भी नया कार्य किया जाता था, उसे जानवर रात के समय ख़राब कर दिया करते थे। अगले दिन सुबह कारीगरों को उसे फिर से ठीक करना पड़ता था।
तत्कालीन कमांडर ने इस समस्या से निदान पाने के लिए कंक्रीट के हर नए काम को तीन सप्ताह सैनिकों की निगरानी में रखने का निर्देश दिया और इसी निर्देश की वजह से इस बेंच को भी सैनिकों की सुरक्षा के बीच रखा गया था। सुरक्षा के तीन सप्ताह पूर्ण होते और वे सैनिकों को वहाँ से हटाते, उससे पूर्व ही कमांड प्रमुख का तबादला हो गया और उनका स्थान एक नए अधिकारी ने ले लिया। नए अधिकारी ने बिना सही कारण जाने, पुराने रोस्टर के मुताबिक़ ही सैनिकों की ड्यूटी लगाना जारी रखा और तब से लेकर आज अस्सी वर्ष पूर्ण होने के बाद भी सैनिकों का पहरा देने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। एक असाइनमेंट जो केवल तीन सप्ताह तक चलने के लिए डिज़ाइन किया गया था, एक चूक या अज्ञानता के कारण अस्सी वर्षों से चल रहा था, जिसमें ना जाने कितने इंसानों का कठिन परिश्रम और समय बर्बाद गया।
ठीक इसी तरह दोस्तों हम भी ना जाने कितनी अव्यवहारिक परम्पराओं, अंधविश्वासों और ढकोसलों, जो किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए, कुछ समय के लिए बनाए गए थे, का बोझ लिए अपना सम्पूर्ण जीवन बिना किसी बाध्यता या रोक टोक के खुश रहते हुए जीना चाहते हैं। सोचकर देखिएगा दोस्तों क्या यह सम्भव है?
वैसे दोस्तों, इसका ठीक विपरीत भी होता है। हमारी कई परम्पराएँ, मान्यताएँ और विश्वास वैज्ञानिक आधार पर सौ प्रतिशत सही हैं लेकिन अकसर हम उनका विरोध सिर्फ़ इसलिए करते हैं क्यूँकि हमारे पास उससे संदर्भित समुचित ज्ञान नहीं है।
वैसे यह धारणाएँ हम सिर्फ़ अपनी संस्कृति या धार्मिक आस्था के आधार पर ही नहीं बनाते हैं, कई बार यह हमारी खुद की क्षमताओं, हमारे आसपास के लोगों, हमारे परिवार, हमारे व्यवसाय, देश, राजनीति, अवसरों आदि किसी के बारे में भी हो सकती हैं।
अगर आप अपना जीवन या भविष्य अपनी पूर्ण क्षमता का उपयोग करते हुए बनाना या जीना चाहते हैं तो सबसे पहले उस ‘कंक्रीट बेंच’ को पहचानिए जिसकी आप बिना किसी वजह के रक्षा कर रहे हैं। याद रखिएगा, अप्रामाणिक धारणाओं से मुक्ति के बिना जीवन में आगे बढ़ना सम्भव नहीं है और यह अपने धर्म, पौराणिक ग्रंथों और इतिहास को जाने बग़ैर सम्भव नहीं होगा। इसलिए सुनी-सुनाई बातों को अपनाने की जगह खुद को शिक्षित करने में समय लगाएँ और पता करें आप जो करते हैं वह क्यों करते हैं? ज़रूरत लगे तो अपने काम करने का तरीका बदलें और रचनात्मक बनें। नई चीजें करें, नए तरीके आजमाएं और हमेशा बदलाव के लिए तैयार रहें।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर