फिर भी ज़िंदगी हसीन हैं...
बड़ा हुआ तो क्या हुआ
May 23, 2021
बड़ा हुआ तो क्या हुआ…
चलिए दोस्तों आज के लेख की शुरुआत हम एक कहानी से करते हैं। बहुत साल पहले की बात है, एक राजा अपने कुछ मंत्रियों और सैनिकों के साथ शिकार करने के लिए जंगल में गया। जंगल में राजा को एक जानवर दिखाई दिया, वे तेज़ी से उसका शिकार करने के उद्देश्य से उसके पीछे गए। उनके पीछे, उनकी सेना और मंत्री भी दौड़े। लेकिन जंगल घना होने के कारण वे भटक गए।
राजा को शिकार करने के बाद एहसास हुआ कि जानवर का पीछा करने के चक्कर में, वे अपने बाक़ी साथियों से अलग हो गए हैं। अंदाज़े से वापस लौटते समय उन्हें रास्ते में एक झोंपड़ी नज़र आयी। राजा ने वहाँ रहने वाले व्यक्ति से रास्ता पूछने का निर्णय लिया। घोड़े से उतरकर जब वे झोंपड़ी में गए तो उन्हें वहाँ एक नेत्रहीन संत नज़र आए। राजा ने उनसे अपने साथियों के बारे में पूछा।
नेत्रहीन संत बोले, ‘महाराज पहले आपके सिपाही आए, उसके बाद आपके मंत्री और अब आप स्वयं पधारे हैं। इस रास्ते पर आगे बढ़ जाइए कुछ ही देर में आपको सभी लोग मिल जाएँगे। राजा ने तुरंत उस दिशा में अपने घोड़े को दौड़ा दिया। कुछ दूर चलने पर ही राजा को सिपाही और मंत्री मिल गए। सबसे मिलने के बाद राजा को एहसास हुआ कि नेत्रहीन संत ने बिलकुल सही बताया था कि पहले सिपाही और उनके पीछे मंत्री गए हैं। अब राजा हैरान थे, वे सोच रहे थे कि नेत्रहीन संत को कैसे पता चला कि किसका ओहदा क्या है? उन्होंने इसका राज जानने का निर्णय लिया।
नेत्रहीन संत के पास पहुँचने पर उन्होंने संत को प्रणाम करा और अपनी दुविधा उनके सामने रखते हुए बोले, ‘महात्मन! मैं बड़ी दुविधा में हूँ। आपको कैसे पता चला कि शुरू में जो लोग आए थे वे सिपाही थे, उसके बाद मंत्री और अंत में मैं स्वयं? नेत्रहीन संत मुस्कुराते हुए बोले, ‘राजन, आदमी की हैसियत का अंदाज़ा लगाने के लिए नेत्रों की नहीं, कानों की आवश्यकता होती है क्यूँकि उसके मुँह से निकले शब्द उसकी असलियत बता देते हैं। जब आपके सिपाही घोड़े पर बैठकर मेरे पास पता पूछने आए थे तो उन्होंने मुझसे इस तरह पूछा था, ‘ऐ अंधे, तुमने इधर से किसी के जाने की आहट सुनी थी क्या?’ मैं तुरंत समझ गया यह संस्कार विहीन लोग छोटी पदवी वाले सिपाही ही होंगे।
इनके जाने के कुछ देर बाद फिर कुछ लोग मेरे पास आए और मुझसे बोले, ‘बाबाजी आपने इधर से घोड़े पर बैठकर जाने की आवाज़ सुनी है क्या?’ मैं तुरंत समझ गया कि यह किसी ऊँचे ओहदे वाले की आवाज़ है क्यूँकि संस्कार वाला व्यक्ति ही ऊँचे ओहदे तक पहुँचता है। इसलिए मैंने आपसे कहा था कि सिपाहियों के पीछे-पीछे मंत्री गए हैं।
जब आप स्वयं आए तो आपने कहा, ‘महात्मन! आपने इधर से निकलकर जाने वाले लोगों की आहत सुनी है क्या? मैं तुरंत समझ गया कि आप राजा हैं क्यूँकि आपने आदर सूचक शब्दों का प्रयोग किया था और आदर वही कर सकता है जिसे दूसरों से आदर मिलता है। जिसने कभी कोई चीज देखी ही ना हो तो वह उस वस्तु के गुणों को कैसे जान सकता है अर्थात् जिसने कभी आदर या सम्मान का स्वाद चखा ही ना हो, वह उसे किसी और को कैसे दे सकता है?’ संत ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, ‘इस संसार को आप एक फलदार वृक्ष की तरह मान सकते हो, जिस डाली पर ज़्यादा फल लगते हैं, वही ज़्यादा झुकती है। इसी आधार पर नेत्रहीन होने के बाद भी मैं आपके पद के बारे में बता पाया। राजन अगर मुझसे कोई चूक हुई हो तो क्षमा करें।’ राजा तो संत के अनुभव से वैसे ही प्रसन्न था, उसने संत के जीवन भर की ज़रूरतों को राजकोष से पूर्ण करने का आदेश दिया और वापस राजमहल लौट आये।
दोस्तों, इस कहानी ने मुझे एक बार फिर से जीवन के एक महत्वपूर्ण पाठ को याद दिलाया कि कोई भी इंसान पैसे, पद और ताक़त से बड़ा नहीं बनता है क्यूँकि यह सब कभी भी आपसे छिन सकता है। आज कई बार हम समाज में युवाओं को इन चीजों के लिए भागते और किसी भी क़ीमत पर इसे पाने के लिए पागलपन की हद तक जाते हुए देख सकते हैं। यही युवा जब थोड़ा सा पैसा, कोई पद या थोड़ी सी ताक़त पा जाता है तो लोगों की उपेक्षा करना शुरू कर देता है, जो किसी भी तरह उचित नहीं है। वैसे दोस्तों इसका एहसास अभी कोरोना काल ने हम सभी को करा दिया है। वैसे दोस्तों यही तो हमें कबीर जी ने भी सिखाया है, ‘बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर, पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।’
अगर आप वाक़ई बड़े बनना चाहते हैं तो लोगों की नज़रों में बड़े बनें, उनके दिल में अपने लिए जगह बनाएँ। ऐसा करने के लिए आपको कोई बहुत बड़ा कार्य नहीं करना है, सिर्फ़ सभी को समान नज़रों से देखते हुए मीठा बोलें, सबको यथोचित सम्मान दें व इंसानियत को सर्वोपरि मानें।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर