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फिर भी ज़िंदगी हसीन हैं...

बुरा जो देखन में चला

बुरा जो देखन में चला
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Nov 19, 2021

बुरा जो देखन में चला…


बात पुरातन काल की है। गुरुकुल में शिक्षा समाप्त होने के बाद जब सभी शिष्य अपने घर जाने लगे तब गुरु ने आशीर्वाद के रूप में अपने शिष्यों को उनकी कमियों या ज़रूरतों के आधार पर कुछ ना कुछ उपहार दिया। इस प्रक्रिया में अंतिम नम्बर आया गुरु के सबसे प्रिय, सबसे बुद्धिमान शिष्य राघवेंद्र का। गुरु ने राघवेंद्र को एक दर्पण देते हुए कहा, ‘राघवेंद्र यह साधारण नहीं एक दिव्य दर्पण है। इस दिव्य दर्पण में किसी भी व्यक्ति के मन के भाव दर्शाने की क्षमता है।


राघवेंद्र गुरुजी से विशेष उपहार पा बड़ा प्रसन्न था। उसने सोचा चलने के पूर्व क्यों ना एक बार दर्पण की क्षमता को जाँच लिया जाए? विचार आते ही उसने मौक़ा पाकर दर्पण का मुँह गुरुजी के सामने कर दिया। इसके परिणाम देखते ही राघवेंद्र को ज़ोरदार सदमा लगा क्यूँकि दर्पण बता रहा था कि गुरुजी के मन और हृदय में मोह, लोभ, क्रोध, अहंकार आदि जैसे कई दुर्गुणों के भाव हैं।


वह सोचने लगा आज तक मैं जिसे आदर्श मान रहा था, वे स्वयं इतने दुर्गुणों से भरे हैं। मैंने कहीं शिक्षा के इतने वर्ष बर्बाद तो नहीं कर दिए? बड़े भारी मन से उसने आश्रम से विदा ली और अपने घर की ओर चल दिया। रास्ते भर उसके मन में एक ही विचार चल रहा था, ‘जिन्हें मैं अपना आदर्श, अपना गुरु मान रहा था एवं समस्त दुर्गुणों से रहित एक आदर्श पुरूष समझता था लेकिन वे तो स्वयं दुर्गुणों की खान निकले। दर्पण ने उनका तो राज ही खोल दिया। अब तो मैं हर किसी को पहले परखूँगा और उसके बाद ही उससे कोई व्यवहार करूँगा।’


घर पहुँचने के बाद राघवेंद्र ने अपने परिवार के सभी सदस्यों, रिश्तेदारों, इष्ट मित्रों व अन्य परिचितों को दर्पण से परखा, सभी लोगों के मन और हृदय में उसे कोई न कोई दुर्गुण अवश्य दिखा। यहाँ तक कि अब तो उसे अपने देवतुल्य माता-पिता में भी कमियाँ ही नज़र आती थी। कुछ ही दिनों में उसे लगने लगा कि दुनिया में ज़्यादातर लोग दोहरी मानसिकता वाले हैं। सभी लोग किसी ना किसी रूप में सिर्फ़ और सिर्फ़ अपना फ़ायदा सोचते हैं। वे जैसे दिखते हैं वैसे हैं नहीं, पूरा संसार मिथ्या पर चल रहा है।


दर्पण से आशा के विपरीत मिले परिणामों की वजह से राघवेंद्र दुखी और निराश रहने लगा। अब उसका मन किसी भी कार्य में नहीं लगता था। गुजरते समय के साथ उसकी बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी। इससे परेशान होकर एक दिन उसने गुरु जी से मिलने का निर्णय लिया।


गुरुकुल पहुँचते ही उसने सबसे पहले गुरुजी को प्रणाम करा। गुरुजी हालाँकि उसकी दुविधा पहले से ही जानते थे, फिर भी उन्होंने उससे इस तरह अचानक से आश्रम आने का कारण पूछा। राघवेंद्र हाथ जोड़े-जोड़े ही बोला, ‘गुरुजी, पूरी दुनिया में हर कोई दोहरे चरित्र वाला है। इस दर्पण की मदद से मैंने सबके दिलों में झांक कर देख लिया है। माफ़ कीजिएगा, लेकिन इस दर्पण के मुताबिक़ आपमें और मेरे माता-पिता में भी कमियाँ हैं। आप और सभी लोगों में इतने दोष देख मेरा मन व्याकुल और बेचैन है।’


अपने शिष्य राघवेंद्र की बात सुनते ही गुरुजी जोर से हंसने लगे। उन्होंने राघवेंद्र के हाथ से दर्पण लिया और उसी का चेहरा दर्पण में उसे ही दिखा दिया। दर्पण में खुद का चेहरा देख राघवेंद्र हैरान था क्यूँकि दर्पण के मुताबिक़ उसके रोम-रोम में राग-द्वेष, अहंकार, क्रोध, लोभ जैसे दुर्गुण भरे पड़े थे। उसके खुदके मन का कोई कोना ऐसा नहीं था, जो निर्मल हो।


दोस्तों हम सभी की हालात राघवेंद्र समान ही है। हम सभी को ईश्वर ने सोचने-समझने, अच्छा-बुरा पहचानने और खुद की कमियों को पहचानकर बेहतर बनने की क्षमता दी हैं। लेकिन अकसर हम अपनी क्षमताओं और सीखी गई बातों का दुरुपयोग दूसरों की कमियों को ढूँढने, उन्हें सुधारने के लिए करते हैं। निश्चित तौर पर दोस्तों आपने यह लोकोक्ति तो सुनी ही होगी, ‘पूरी दुनिया को कार्पेट से कवर करने से बेहतर है कि खुद के पैरों में जूते पहने जाएँ।’ ठीक इसी तरह दोस्तों हमें पूरी दुनिया की कमियों, दुर्गुणों को देखने, उन्हें दूर करने में, समय और ऊर्जा बर्बाद करने के स्थान पर इसका उपयोग खुद को बेहतर बनाने में करना होगा, तभी हम ईश्वर द्वारा दी गई असीमित क्षमताओं को पहचानकर, उनका उपयोग करके अपने व्यक्तित्व को निखार पाएँगे।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर 

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