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फिर भी ज़िंदगी हसीन हैं...

विचार आपको बना भी सकते हैं और मिटा भी सकते हैं

विचार आपको बना भी सकते हैं और मिटा भी सकते हैं
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Sep 7, 2021

विचार आपको बना भी सकते हैं और मिटा भी सकते हैं!!! 


5 सितम्बर को शिक्षक दिवस के उपलक्ष्य में मध्यप्रदेश के इंदौर ज़िले के एक छोटे से शहर सेंधवा में लायंस क्लब द्वारा आयोजित शिक्षक सम्मान समारोह में अतिथि के रूप में सम्मिलित होने का मौक़ा मिला। उक्त कार्यक्रम के पश्चात एक सज्जन मेरे पास आए और मुझसे बोले, ‘सर, मैं बहुत ज़्यादा नकारात्मक सोचता हूँ। क्या यह सही है या नहीं?’ मेरे ना में जवाब देते ही वे सज्जन बोले, ‘सर, मुझे तो लगता है इससे मुझे फ़ायदा होता है।’ 


उनका जवाब मेरे लिए थोड़ा चौकानें वाला था। मैंने उनसे कहा, ‘सर, मेरी सोच आपसे थोड़ी भिन्न है, मेरा मानना है कि हमारे विचार ही हमें बनाते या मिटाते हैं। इसलिए नकारात्मक विचारों से दूर रहना ही फ़ायदेमंद है। विचारों की ताक़त जानने के लिए आप वर्ष 1980 में लायल वाटसन द्वारा लिखी गई किताब ‘लाइफ़टाइड’ में ‘द हंड्रेड मंकी इफेक्ट’ के सिद्धांत को पढ़कर समझ सकते हैं।’


मुझे नहीं पता वे सज्जन मेरी बात से सहमत थे या नहीं? लेकिन दोस्तों उनके द्वारा चर्चा में आए इसी सिद्धांत पर हम आज चर्चा कर लेते हैं-

यह सिद्धांत जापानी जंगली बंदर ‘मकाका फुस्काट’ पर 30 साल तक निगरानी में रखकर की गई रिसर्च पर आधारित है। वर्ष 1952 में जापान के कोशिमा द्वीप पर वैज्ञानिकों ने बंदरों के समूह को मिट्टी लगे हुए शकरकंद खाने के लिए दिए। बंदरों को शकरकंद का स्वाद तो बहुत पसंद आया लेकिन उन्हें गंदगी पसंद नहीं आ रही थी अर्थात् शकरकंद पर लगी मिट्टी उन्हें उसका मज़ा नहीं लेने दे रही थी।’


कुछ दिनों पश्चात एक 18 माह की मादा बंदर को इस समस्या का हल मिला। वह शकरकंद खाने के लिए पानी की बहती धार के पास बैठी हुई थी कि उसके हाथ से शकरकंद छूट कर पानी में गिर गया। उसने तुरंत पानी में गिरे शकरकंद को निकाल कर खाया, तो उसे उसका असली स्वाद मिला। उसने तुरंत अपनी खोज समूह के अन्य बंदरों को बताना शुरू की। इस रिसर्च में एक और बात पता चली थी कि जिन बंदरों ने अपने बच्चों को शकरकंद धोकर खाते हुए देखा था सिर्फ़ वे ही सामाजिक सुधार के सहभागी बने। अन्य वयस्क बंदर अभी भी मिट्टी से सने, गंदे शकरकंद ही खा रहे थे। वर्ष 1958 आते-आते बंदरों के पूरे समूह ने शकरकंद को धोकर खाना सीख लिया। 


वर्ष 1958 में ही जब वैज्ञानिक इस पर रिसर्च कर ही रहे थे तभी उन्हें एक चौकानें वाली घटना के बारे में पता चला जिसके मुताबिक़ बंदर बिना सिखाए अपने आप शकरकंद को धोकर खाना सीख रहे थे। इसे मैं आपको एक उदाहरण से समझाता हूँ- 


मान लें कि 100 में से 99 बंदर जब शकरकंद को धोकर खाना सीख जाते थे तो 100वां बंदर बिना बताए ही उसी दिन शाम तक शकरकंद धोकर खाना शुरू कर देता था। इस सौवें बंदर द्वारा अपने आप सीखने की घटना ने एक वैचारिक सफलता दी। कुछ ही समय बाद उस द्वीप से दूर ताकासाकियामा में भू-भाग पर रहने वाली बंदरों की टुकड़ी ने भी अपने आप शकरकंद को धोकर खाना शुरू कर दिया। जबकि वहाँ पहले से कोई भी बंदर मौजूद नहीं था जिसने शकरकंद को धोकर खाते हुए दूसरे बंदरों  को देखा हो।


इस घटना को देख वैज्ञानिकों के समूह ने एक नई परिकल्पना को जन्म दिया जिसके मुताबिक़, ‘जब एक समूह में ज़्यादातर लोग किसी बारे में एक जैसा विचार रखते हैं तो इस नई सीख को मानसिक शक्ति के द्वारा समूह के अन्य लोगों तक पहुँचाया जा सकता है।’


दोस्तों, इस रिसर्च ने इस बात को सिद्ध कर दिया था कि हमारे विचारों में ताक़त होती है। हमारे विचार अगर शक्तिशाली हों तो वे वैसा ही परिवर्तन हमारे जीवन में ला सकते हैं। अर्थात् जिन विचारों पर हम पूरी तरह यक़ीन करना शुरू कर देते हैं तो हमारी मानसिक शक्ति उन विचारों को हक़ीक़त में बदल देती है। इसीलिए तो कहा गया हैं, ‘अगर आपको एहसास हो गया कि आपके विचार कितने शक्तिशाली हैं, तो आप कभी भी नकारात्मक विचार नहीं सोचेंगे।’ 


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर 

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