फिर भी ज़िंदगी हसीन हैं...
संस्कार ही इंसान को इंसान बनाता है


May 24, 2021
संस्कार ही इंसान को इंसान बनाता है…
आज अमेरिका में रहने वाले एक मित्र से चर्चा हो रही थी। चर्चा के दौरान उनकी कही एक बात सुन मुझे काफ़ी गर्व महसूस हुआ और मुझे लगा कि मुझे यह बात आप सभी से साझा करना चाहिए क्यूँकि इस गर्व के भाव के पीछे का असली कारण आप सभी लोग तो हैं, जिनकी वजह से इंसानियत ज़िंदा है और उससे मिली ऊर्जा जीवन को सकारात्मक रूप से गतिशील रखती है। चलिए पहले आप को मित्र से क्या बात हुई, वह बताता हूँ-
पिछले माह जब कोरोना की दूसरी लहर की वजह से जब लगभग हर परिवार किसी ना किसी रूप में परेशान था और कहीं ना कहीं हेल्थ केयर सिस्टम, प्रशासन आदि मांग और पूर्ति में आए बड़े अंतर की वजह से फेल होता नज़र आ रहा था। उस वक्त समाज ने एक साथ आकर जिस तरह सेवा करी वह अतुलनीय थी। वे इसी विषय में मुझसे जानकारी चाहते थे कि आख़िर किस तरह समाज ने इतनी जल्दी इस पर क़ाबू पाया कि आज अस्पताल में भी जगह ख़ाली है और दवाइयाँ भी बाज़ार में उपलब्ध हैं। साथ ही वे यह भी जानना चाहते थे कि आख़िर ऐसी कौन सी चीज़ है जिसकी वजह से आमतौर पर अलग-अलग नज़र आते भारतीय लोग विपत्ति या विपरीत समय में एकजुट होकर तन, मन और धन तीनों के साथ सेवा में लग जाते हैं।
मैंने जवाब देने की जगह उन्हीं से एक प्रश्न किया, ‘इतनी दूर बैठकर आप आज अचानक मालवा क्षेत्र में हुए सामाजिक कार्य और भारतीय संस्कृति पर आधारित प्रश्न क्यूँ पूछ रहे हैं?’ तो वे बोले आप जैसे ही कुछ भारतीय लोगों से मेरी यहाँ भी मित्रता है। भारत में अपने लोगों को परेशानी और दिक़्क़त में देख उन सभी लोगों ने अपने शहर, अपने देश से दूर रहते हुए जिस तरह मदद करने का प्रयास किया, उसने ही मुझे आप से इस विषय पर बात करने के लिए मजबूर करा।
एक ओर जहां देश में अपने ही लोग हर जगह कमियों पर बात कर रहे हैं। अपने राजनैतिक हितों को साधने के लिए, अपने फ़ायदे के लिए बातों को तोड़-मरोड़कर समाज में अस्थिरता लाने या समाज को बाँटने का प्रयास कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर विदेशी द्वारा हमारे यहाँ उठाए जा रहे कदमों की सराहना करना और उससे कुछ सीखने का प्रयास करना यकीनन सीना चौड़ा करने वाला एहसास कराता है। उनकी बातचीत से ही मेरा यह विश्वास और पुख़्ता हो गया कि अपने फ़ायदे के लिए कार्य करने वाले मुट्ठी भर लोग मदद करने वाले लाखों-करोड़ों के सामने कहाँ टिक पाएँगे?
मैंने पूरे गर्व के साथ कहा, ‘मित्र, यह हमारी भारतीय संस्कृति है, हमारा धर्म, हमारा इतिहास और हमारी परम्पराएँ हमेशा इंसानियत को सर्वोपरि मानने के लिए प्रेरित करती है। आमतौर पर हर बच्चा अपने परिवार में बड़ों को सेवा करते हुए देखता है इसी वजह से इन बातों के महत्व को बचपन से ही सीखना शुरू कर देता है। यहाँ ऐसे हज़ारों उदाहरण है जहाँ लोगों ने खुद की जान देकर दूसरों की जान बचाई है। यह वह देश है जहां सिखों के दसवें गुरू श्री गुरू गोविंद सिंह जी ने धार्मिक गुरु होने के साथ ही एक राष्ट्रभक्त, राष्ट्रवीर, अद्भुत योद्धा और समाजसेवी की ज़िम्मेदारी भी निभाई थे।
उन्होंने देश की आन-बान और शान बचाने के लिए, समाज को एक महत्वपूर्ण संदेश देने के लिए अपने पुत्रों को क़ुर्बान कर दिया था। आज हम उन्हीं के सिखाए और दिखाए रास्ते पर चलते हुए पूरे सिख समाज को देख सकते हैं कि वे कैसे सामान्य जीवन में समाज हित को सर्वोपरि रखते हुए कार्य करते हैं।
लेकिन चलिए यह तो हो गई गुरुओं की बात। लेकिन जब कोई बच्चा इन गुरुओं की जीवनी को पढ़कर और परिवार द्वारा किए जा रहे समाज सेवा के कार्यों को देखकर बड़ा होता है, तो वह भी इन्हीं जीवन मंत्रों को अपनाकर जीवन में आगे बढ़ता है और मौक़ा मिलने पर खुद की जान देकर किसी और की जान बचा लेता हैं। नागपुर के रहने वाले नारायण भाऊराच दाभाडकर का ही उदाहरण ले लीजिए। पिछले माह वे कोरोना से पीड़ित हुए और घर पर रहकर ही अपना इलाज कराने लगे। लेकिन जब उनका स्वास्थ्य ज़्यादा ख़राब होने लगा और ऑक्सीजन का लेवल 60 आने पर उनकी बेटी और दामाद ने उन्हें अस्पताल में भर्ती कराने का निर्णय लिया। लेकिन अस्पताल में बेड उपलब्ध नहीं थे, बेटी और दामाद ने बड़ी मुश्किल से इंदिरा गांधी शासकीय अस्पताल में उनके लिए एक बेड का इंतज़ाम किया और उन्हें भर्ती कराने के लिए अस्पताल लेकर गए। जिस वक्त उनके दामाद भर्ती करने की प्रक्रिया पूर्ण कर रहे थे तब श्री नारायण जी ने एक महिला को अपने कोरोना संक्रमित पति को बचाने के लिए बेड की गुहार करते हुए देखा। अस्पताल ने बेड ख़ाली ना होने की वजह से महिला के 40 साल के पति को भर्ती करने से मना कर दिया।
यह देख श्री दाभाड़कर बोले, ‘मैंने अपनी जिंदगी जी ली है। मेरी उम्र 85 साल है। इस महिला का पति युवा है, उसे बेड दे दिया जाए। इसे अभी अपने बच्चों को बड़ा करना है अपने परिवार को पालना है।’ अस्पताल कर्मचारियों, उनकी लड़की ने उन्हें समझाने का प्रयत्न करा लेकिन वे माने नहीं और अस्पताल के कन्सेंट फ़ॉर्म पर हस्ताक्षर कर घर लौट आए। इस घटना के तीन दिन बाद बिना उचित इलाज के श्री दाभाड़कर की मौत हो गई लेकिन वे अपने कर्मों से आने वाली पीढ़ी के लिए एक नया उदाहरण गढ़ गए। इसी तरह यह सेवा भाव पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ रहा है।
मुझे नहीं मालूम दोस्तों, मैंने उसे सही जवाब दिया या नहीं लेकिन मुझे वो मित्र संतुष्ट लगा। साथ ही मुझे लगा कि रेडियो दस्तक परिवार और अपनी तरफ़ से मैं संजय व्यास, नीरज थोरात, डॉक्टर रौनक़, मंगलेश जोशी, संदीप गहलोत, सागर तंवर जैसे हर उस कोरोना योद्धा का धन्यवाद करूँ जो खुद की जान दांव पर लगाकर लोगों की जान बचाने में लगा हुआ है।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर

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