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फिर भी ज़िंदगी हसीन हैं...

सिर्फ़, नज़रिए की है बात

सिर्फ़, नज़रिए की है बात
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Aug 26, 2021

सिर्फ़, नज़रिए की है बात!!!


सामान्यतः हर इंसान अपनी असफलता के लिए परिस्थिति, परिवार या संसाधन को दोष देता है। ऐसा ही कुछ आज मेरे एक मित्र के साथ घटित हुआ। किसी विषय पर मेरे मित्र अपने पिता से चर्चा कर रहे थे। लेकिन दोनों का मत अलग होने की वजह से बातचीत ने जल्द ही एक झगड़े का रूप ले लिया। बातचीत में आरोप-प्रत्यारोप के बीच मित्र ने अपने पिता से कह दिया, ‘आपने आज तक मेरे लिए किया ही क्या है? आज जहां भी पहुँचा हूँ अपनी मेहनत की वजह से पहुँच पाया हूँ।’ पिता पुत्र के मुँह से यह शब्द सुन व्यथित हो गए और एक प्रकार से मौन व्रत धारण कर बैठ गए।


रिश्तों में दोस्तों कई बार ऐसी स्थिति आ जाती है जब हम किसी भी व्यक्ति के लिए अपनी धारणा बनाकर बैठ जाते हैं और एक न्यायाधीश के रूप में उसके चरित्र, कार्य आदि के बारे में राय क़ायम कर फ़ैसला सुना देते हैं। ऐसा ही कुछ मेरे मित्र ने अपने पिता के साथ करा था। पर क्या ऐसा करना उचित है? मेरी नज़र में तो बिलकुल नहीं… क्यूंकि किसी को सही या ग़लत हम सिर्फ़ अपने नज़रिए के आधार पर ठहराते हैं, कई बार सच्चाई इसके बिलकुल विपरीत भी हो सकती है। इसे मैं आपको एक छोटी सी कहानी के माध्यम से समझाता हूँ।


एक महिला को एयरपोर्ट पहुँचने पर पता चला की कुछ तकनीकी कारणों से उसकी फ़्लाइट आज कुछ घंटों की देरी से चल रही है। अपने समय का उपयोग करने के लिए वह एयरपोर्ट पर स्थित दुकानों में गई और वहाँ से अपनी पसंद के बिस्किट का पैकेट लाकर, वेटिंग एरिया में लगी कुर्सी पर, एक युवक के पास जाकर बैठ गई। कुछ देर बाद उसने अपने पर्स में से एक किताब निकाली और उसे पढ़ने लगी।


जिस वक्त वह अपनी किताब को पढ़ने में तल्लीन थी तभी उसने देखा की पास बैठे युवक ने बिना उससे पूछे उसके बिस्किट के पैकेट को खोल बिस्किट खाना शुरू कर दिया है। उसे बड़ा अजीब सा लगा पर उसने उसे नज़रंदाज़ कर दिया। कुछ देर पश्चात उस युवक ने उस पैकेट में से एक और बिस्किट लिया और बड़े आनंद के साथ उसे खाने लगा। महिला को उस युवक का व्यवहार बड़ा अटपटा लग रहा था। फिर भी अनमने मन से उसने उसकी हरकत को नज़रंदाज़ करा और उसी पैकेट में से एक बिस्किट लेकर किताब पड़ते-पड़ते खाने लगी। कुछ देर तक ऐसा ही चलता रहा जैसे ही वह युवक एक बिस्किट लेता, महिला भी एक बिस्किट ले लेती।


एक और जहां महिला उस बिस्किट चोर की वजह से ग़ुस्से में लग रही थी वहीं दूसरी और चोर युवक एकदम शांत और मज़े में था। ऐसा लग रहा था मानो उसने बिस्किट खाकर भरपूर आनंद उठाया है। बिस्किट चोर के उठाए हर बिस्किट के साथ महिला चिड़चिड़ी होती जा रही थी। लेकिन जैसे ही उस बिस्किट चोर ने आख़री बिस्किट उठाया और उसे बीच में से आधा तोड़कर उस महिला की ओर बढ़ाया उसका ग़ुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया और उसने उस चोर के हाथ से आधा बिस्किट छीन लिया और वहाँ से अपना सामान उठा कर फ़्लाइट बोर्ड करने जाने लगी। सामान उठाते वक्त वह सोच रही थी की कैसा नालायक युवक है, मेरे आधे से ज़्यादा बिस्किट खाने के बाद भी आभार व्यक्त नहीं कर रहा है। 


ख़ैर फ़्लाइट का एनाउंसमेंट सुन वह सीधे बोर्डिंग गेट की ओर बाद गई। विमान में अपनी सीट पर बैठने के बाद उसने अपनी किताब को पर्स में रखने के लिए पर्स खोला तो उसमें अपना बिस्किट का पैकेट सलामत देख हैरान रह गई। वह सोच रही थी की अगर मेरा बिस्किट का पैकेट मेरे पास है तो जो मैंने खाया वो निश्चित तौर पर उस युवा का था। एक ओर जहां वह युवक बिस्किट शेयर करने के बाद भी खुश था, वहीं मैं उसके बिस्किट खाकर उसी पर चिढ़ रही थी। पूरी घटना उसकी आँखों के सामने एक चलचित्र की भाँति चल रही थी और उसके अंदर ग़ुस्से ने अपराध बोध का रूप ले लिया था, वह उसी वक्त उस युवक से माफ़ी माँगना चाहती थी। लेकिन, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।


जी हाँ दोस्तों, जिस तरह मेरे मित्र को लग रहा था की उनके पिता ने उनके लिए कभी कुछ नहीं किया है और आज वे जहां भी हैं सिर्फ़ और सिर्फ़ खुद की मेहनत के बलबूते पर हैं ठीक उसी तरह कई बार हम भी न्यायाधीश बन किसी के भी प्रति अपनी राय क़ायम कर बैठ जाते हैं। लेकिन याद रखिएगा चीजें हमेशा वैसी नहीं होती जैसी वे दिखती हैं। इसलिए कभी भी न्यायाधीश ना बनें, किसी के लिए भी कोई राय ना बनाएँ, कई बार यह अंतर सिर्फ़ नज़रिए की वजह से होता है।


-निर्मल भटनागर

एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर 

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