फिर भी ज़िंदगी हसीन हैं...
हम जैसा सोचते हैं, वैसे बन जाते हैं
Mar 5, 2022
हम जैसा सोचते हैं, वैसे बन जाते हैं !!!
दोस्तों, कहते हैं ना परीक्षा अच्छों-अच्छों की नींद उड़ा देती है और अगर परीक्षा विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों की हो तो माता-पिता की नींद भी उड़ना तय है। वैसे इस वर्ष यह स्थिति थोड़ी और गम्भीर है क्यूँकि इस बार विद्यालय द्वारा लगभग 2 साल बाद बच्चों को ऑफ़लाइन परीक्षा देने के लिए कहा जा रहा है। सर पर आती परीक्षा, उसकी वजह से बदले माहौल के कारण कुछ विद्यार्थी काफ़ी डरे हुए हैं। पिछले एक सप्ताह में ऐसे कई केस काउन्सलिंग के लिए मेरे पास आए। आइए उनमें से दो केस को आपके साथ साझा करता हूँ-
पहला केस - पंजाब के करनाल स्थित डी॰पी॰एस॰ ने कोविद की स्थिति को ध्यान रखते हुए बच्चों को सुविधा दी है कि वे ऑनलाइन अथवा ऑफ़लाइन में से किसी एक मोड का चुनाव कर परीक्षा दे सकते हैं। लेकिन एक शर्त के साथ, जो बच्चे ऑनलाइन परीक्षा देंगे वे कक्षा के टॉपर्स के लिए दी जाने वाली विशेष यूनिफ़ॉर्म और अन्य पुरस्कार के लिए पात्र नहीं रहेंगे।
विद्यालय द्वारा इसकी घोषणा करते ही कक्षा आठवीं की एक होशियार और होनहार छात्रा, जो पिछले कई वर्षों से कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त कर रही थी, के पिता ने इस विषय में मेरा मत जानना चाहा। जब मैंने उस छात्रा से इस विषय में चर्चा करी तो उसने बताया कि पिछले दो वर्षों में उसने ज़्यादातर पढ़ाई ऑनलाइन करी है इसलिए उसे लगता है कि वह ऑफ़लाइन परीक्षा में तय समय में अपना प्रश्नपत्र हल नहीं कर पाएगी।
दूसरा केस - इंदौर के एक छात्र ने काउन्सलिंग के दौरान मुझसे प्रश्न किया कि परीक्षा देते समय प्रश्नपत्र को हाथ में लेते ही वह प्रश्नों के उत्तर क्यूँ भूल जाता है? जबकि उसे वह अच्छे से याद थे और इसका प्रमाण यह है कि परीक्षा ख़त्म होने के बाद हॉल से बाहर आते ही उसे सही जवाब याद आ जाते हैं।
दोस्तों यह कहानी सिर्फ़ इन दो बच्चों की नहीं है बल्कि ज़्यादातर छात्रों के साथ किसी ना किसी डर की वजह से ऐसा होता है। अगर आप थोड़ा सा दिमाग़ पर जोर देकर देखेंगे तो पाएँगे कि हममें से भी कुछ के साथ बचपन में ऐसा हुआ होगा। आपको क्या लगता है, इसका कारण क्या होगा? चलिए एक कहानी के द्वारा इसे समझने की कोशिश करते है -
गाँव के बाहरी हिस्से में एक बहुत ही निर्धन व्यक्ति एक पेड़ के नीचे रहता था। उसकी हालत इतनी गम्भीर थी कि अगर कोई दिनभर में कुछ खाने के लिए ना दे तो उसे भूखे पेट ही सोना पड़ता था। एक दिन भूख और ग़रीबी से परेशान होकर वह गाँव छोड़ शहर की ओर चल दिया। रास्ते में अंधेरा हो जाने की वजह से उसने पेड़ के नीचे बने एक चबूतरे पर रात गुज़ारने का निर्णय लिया। थकान और भूख की वजह से चबूतरे पर लेटने के बाद भी उसे नींद नहीं आ रही थी। वह मन ही मन सोचने लगा कि मेरे पास मनपसंद भोजन होता तो कितना अच्छा रहता? मैं उसे खाकर तृप्त हो जाता। उसके मन में विचार आते ही उसके सामने लज़ीज व्यंजनों से भरी थाली आ गई, वह चौंक गया, पर भूखा होने की वजह से ज़्यादा कुछ सोच नहीं पाया। उसने भरपेट भोजन किया और खुश होकर विश्राम करने लगा। विश्राम करते-करते उसके मस्तिष्क में एक नया विचार आ गया, ‘काश! मेरे पास सोने के लिए एक आरामदायक बिस्तर होता, तो कितना आनंद आता?’ पलक झपकते ही उसके सामने एक आरामदेह बिस्तर आ गया। वह यह सब देखकर आश्चर्यचकित हो गया। अभी वह उस बिस्तर पर सोने का आनंद ले ही रहा था कि तभी उसके मन में एक और विचार कौंधा कि इतने अच्छे बिस्तर पर सड़क किनारे पेड़ के नीचे सोना अच्छा नही लगता। मुझे तो इस बिस्तर के साथ यही पर एक सुंदर से घर में होना चाहिए था। पलक झपकते ही उसने स्वयं को एक आलीशान घर के अंदर पाया।
सोचा हुआ सच में घटित होता देख वह हैरान था। उसके साथ ऐसा पहली बार हुआ था, वह डर गया। उसके मन में तरह-तरह के डरावने विचार आने लगे। जैसे, इस सुनसान जगह पर भूत भी तो हो सकता है, जो मेरा शिकार करने से पहले मेरी इच्छाएँ पूरी कर रहा है। यह विचार मन में आते ही वहाँ एक भूत आ गया और उसने उस व्यक्ति का शिकार कर लिया।
दोस्तों वह इंसान जिस वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहा था, वह एक मायावी वृक्ष था। जिससे जो मांगो वह मिल जाया करता था। लेकिन यह बात उस व्यक्ति को समझ ही नहीं आयी। वैसे दोस्तों हमार मन ऐसा ही एक मायावी वृक्ष होता है जो असीम शक्तियों से भरा हुआ होता है और अक्सर यह हमारे मन में आए विचारों को हक़ीक़त में बदल देता है। उपरोक्त दोनों बच्चों के साथ भी ऐसा ही हो रहा था। इसीलिए दोस्तों कहा गया है, ‘हम जैसा सोचते हैं, वैसे बन जाते हैं।’ इसलिए सुखी और संतुष्ट जीवन जीने के लिए श्रेष्ठ सोच का होना मूलभूत और महत्वपूर्ण आवश्यकता है।
-निर्मल भटनागर
एजुकेशनल कंसलटेंट एवं मोटिवेशनल स्पीकर