दैनिक भास्कर - मैनजमेंट फ़ंडा
एन. रघुरामन, मैनजमेंट गुरु
एक बार बच्चों को सुनें और फिर फर्क देखें
Aug 19, 2021
एक बार बच्चों को सुनें और फिर फर्क देखें
मैं पछता रहा हूं कि गांव में छह दिन की छुटि्टयों के आखिरी दिन सृष्टि से मिला। तीन साल से छोटी बच्ची के नन्हे हाथ घर के आंगन में हर चीज को पकड़ने की नाकाम कोशिशें कर रहे थे। टिमटिमाती पलकों से उड़ने की कोशिश में फड़फड़ाती वह नन्ही चिड़िया; आंखें कंचों-सी चमक रही थीं; होंठ फूलों की तरह खुल रहे थे, छोटे दांतों की सफेदी इतनी कि किसी भी टूथपेस्ट एड को मात दे दे और एकाएक मुझे लगा कि छोटे इंसानी शरीर में, मैं भगवान को देख रहा हूं।
मैं उसकी मधुर आवाज में खो गया, जब उसने पूछा कि ‘आप कौन हैं?’ इससे पहले कि मैं जवाब दे पाता उसके दादा अंदर से आए और मेरा परिचय देना शुरू कर दिया, मैं कहां से आया और क्या करता हूं आदि-आदि। वह सिर ऐसे हिला रही थी जैसे सबकुछ समझ रही हो। पर उसकी आंखें उस छोटी गली में ठेला धकाते व्यक्ति पर टिकी हुई थीं, इस गली के दोनों ओर कुल 30 मकान थे, दोनों तरफ 15-15 । वह दुबला-पतला व्यक्ति रद्दी से भरा ठेला धकेल रहा था। सृष्टि का ध्यान उसके पसीने, बिना चप्पल के पैर और ठेला धकाने में लग रही कोशिश पर था। ज्यो हीं वह उसके घर के सामने से गुजरा, उसने दादा से कहा, ‘देखो उसके पास चप्पल नहीं है। धूप भी कितनी तेज है। मैं उसे अपनी चप्पल दे देती, लेकिन वो उसे नहीं आएगी। आप अपनी चप्पल उसे क्यों नहीं दे देते?’ दादा ने भावहीन चेहरा बनाया, सीधा जवाब देने से बचे और कहा, ‘चूंकि रद्दीवाला अपने घर से दूर चला गया है, उसे हम कल देखेंगे।’ उसने सिर हिलाया, लेकिन उस गरीब आदमी की मदद न कर पाने का दुख बच्ची के चेहरे पर था। उसे दुखी देखकर दादा ने गमछे से अपने भी आंसू पोंछे और उससे कहा, ‘आओ तुम्हारे दूध पीने का वक्त हो गया है’ और उसे अपने साथ ले गए।
जैसे ही मैं अपने घर के अंदर आया और बताया कि मैंने क्या देखा तब मेरे रिश्तेदार बोले कि ‘उन दादा के बेटे यहां तक कि चश्मे का नंबर बदलने पर भी उनके साथ दुर्व्यवहार करते हैं। आपको लगता है कि उनके पास रद्दीवाले को देने के लिए एक और चप्पल होगी?’
मुझे घर का मामला समझ आ गया, लेकिन सृष्टि की मधुर आवाज वापस मुझे उस पुश्तैनी घर के आंगन में ले गई। उसे देखना दिव्यता भरा था। सृष्टि कह रही थी, ‘पियो, तुम भूखे हो न, जल्दी पियो।’ वह अपनी दूध की बोतल पकड़े थी और बकरी का बच्चा दूध पी रहा था। मैं उस दृश्य में पूरी तरह तल्लीन हो गया। अचानक दादा दौड़ते हुए आए, ‘हे भगवान ये तुमने क्या किया, अगर तुम्हारे पिता देख लेंगे तो मुझे मार डालेंगे।’ सृष्टि ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और मासूमियत से कहा, ‘इस बच्चे को कौन दूध पिलाएगा दादा?’ जिस तरह से दादा ने उस मेमने के मुंह से बोतल छीनी, सृष्टि को ये अच्छा नहीं लगा। उसकी आंखों में आंसू थे। मेरी आंखें भी भीग गई थीं।
बाद में मैंने सृष्टि के दादा से उसे दुकान ले जाने की अनुमति मांगी और ये भी पूछा कि वो रद्दीवाला कहां मिलेगा। उन्होंने बताया कि वो दूसरी या तीसरी गली में मिल जाएगा और सृष्टि मेरे साथ चलने को तैयार थी क्योंकि मैं रद्दीवाले को अपनी चप्पल देने को तैयार था। मेरा हाथ थामे वह रास्ते में आने वाले सारे घरों के बारे में बताती चल रही थी। उसने खुशी से वो चप्पल रद्दीवाले की दी और वापस लौटते हुए मैंने उसके लिए दूध पीने की दो बोतलें खरीदीं। सृष्टि के चेहरे पर आए कृतज्ञता के भाव को मैं सच में बयां नहीं कर सकता। शाम को जब मैं मुंबई के लिए निकल रहा था तो वह दौड़कर आई, मुझे गले लगाया और जोर से चूमते हुए अपने तरीके से थैंक्यू बोला।
फंडा ये है कि बच्चों को सुनें और क्षण भर के लिए बच्चे बन जाएं और फिर अपने अंदर आए बदलाव को देखें। मैं गारंटी देता हूं कि आपको स्वर्ग-सा अहसास होगा।