दैनिक भास्कर - मैनजमेंट फ़ंडा
एन. रघुरामन, मैनजमेंट गुरु
किताबों से बढ़कर दोस्त कोई नहीं


April 17, 2021
किताबों से बढ़कर दोस्त कोई नहीं
कुछ दिनों से मैंने खुद को आइसोलेशन में रखा है। कारण आसान है। चूंकि महाराष्ट्र गंभीरता से आंशिक लॉकडाउन लगाने के बारे में सोच रहा था और उसने ऐसा किया भी, इसलिए मैंने तय किया कि खुद को बंदकर मैं वे किताबें पूरी करूंगा, जिन्हें यात्रा की आपाधापी में पहले नहीं पढ़ पाया।
आंशिक लॉकडाउन मेरी इस अधूरी इच्छा को पूरी करने के बहाने के साथ सरकारी आदेश को पूरी तरह मानने का तरीका भी है। जब मैं किताब में डूबा था, गेट से एक बच्ची ने चिल्लाकर पूछा कि मैं कहां खोया हुआ हूं। जब मैंने कहा किताब में, तो अगला मासूम सवाल था, ‘कौन सी?’ जब मैंने किताब की प्रकृति बताई तो बच्ची ने मुझे यूं देखा जैसे मैं एलियन हूं। मैंने भांप लिया कि वह मुझसे जुड़ नहीं पा रही है, इसलिए मैंने पूछा क्या उसके पास पढ़ने के लिए किताब है, उसका जवाब न था।
तब मैंने आसपास पूछताछ का फैसला लिया। जिन बच्चों से मैं मिला, उनमें ज्यादातर के पास कहानियों की किताबें (स्कूली किताबों के अलावा) नहीं थीं, जिन्हें वे पढ़ना और बार-बार पढ़ना पसंद करें। कुछ के पास थोड़ी-बहुत किताबें थीं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही थीं। बमुश्किल एक-दो बच्चे ही किताबों से कहानी सुना सकते थे। ऐसा भी नहीं है कि वे पढ़ने के लिए हेडफोन, किंडल या कोई स्क्रीन इस्तेमाल करते हैं। वे गैजेट सिर्फ देखने के लिए इस्तेमाल करते हैं।
ज्यादातर शिक्षाविदों की तरह मैं भी मानता हूं कि अगर अगली पीढ़ी तस्वीरों वाली किताबें और कहानियों पढ़ने की कला खो देगी तो यह विनाशकारी होगा। मैं मानता हूं कि किताबें बुद्धिमत्ता, रचनात्मकता पैदा करती हैं और मौजूदा महामारी ने बता दिया है कि हमें आसपास के चौंकाने वाले घटनाक्रमों का सामना करने के लिए बुद्धिमत्ता की कितनी जरूरत है।
उन दिनों छोटे-छोटे म्युनिसिपल स्कूलों में भी लाइब्रेरी होती थीं। मुझे स्कूल से किताबें लाने में गर्व महसूस होता था, भले ही उन्हें पढ़ने के लिए माता-पिता की मदद लेनी पड़े। जब मैं बच्चा था, मुझे एक खास कॉपी सिर्फ कहानियां लिखने के लिए दी गई थी क्योंकि मेरी लिखावट खराब थी और वर्तनी भयानक। चूंकि हमारी व्याकरण की तुलना करने की आदत थी, इसलिए हमारी शिक्षिका हर कॉपी में ‘वेरी गुड’ लिखती थीं, ताकि तुलना के कारण किसी के आत्मसम्मान को ठेस न पहुंचे।
एक बार मेरे पिता ने आपत्ति जताई कि शिक्षिका को सभी की समान सराहना नहीं करनी चाहिए। इसपर वे बोलीं, ‘अगर मैं उनकी कॉपी में लाल पेन से बुरी टिप्पणी लिखूंगी तो वे भाषा से और फिर शब्दों से नफरत करने लगेंगे, जो खतरनाक है। बच्चे समय के साथ व्याकरण सीख सकते हैं। इसलिए चिंता न करें, मैं सभी का ख्याल रखूंगी।’
आज लिखने-पढ़ने को बढ़ावा देने की बजाय ज्यादातर स्कूल परीक्षाओं के जरिये केवल व्याकरण, वर्तनी, विराम चिह्नों आदि ध्यान दे रहे हैं। दूसरी तरफ, आज के माता-पिता बच्चों पर स्कूल के बाद कराटे, ड्रामा से लेकर संगीत सीखने तक जाने के लिए दबाव बना रहे हैं। रियलिटी शो परोक्ष रूप से यह दबाव बढ़ा रहे हैं।
कई दशकों के शोध बताते हैं कि बच्चे की शैक्षणिक सफलता का सबसे बड़ा संकेत है कि उसे पढ़ने में आनंद आए, फिर वह किसी भी सामाजिक-आर्थिक तबके से हो। किताबें शब्द हैं और शब्द विचारों का रास्ता। शब्दों का ज्यादा ज्ञान यानी विचारों का ज्यादा बौद्धिक मार्ग। फिल्में देखना, किताबें पढ़ने के बराबर नहीं है। फिल्म हावी होती हैं क्योंकि वे बताती हैं कि चीजें कैसे दिखती हैं। लेकिन किताबें बच्चे को किरदार बनने का मौका देती हैं। वे संवेदनाएं पैदा करती हैं, जिसका सीधा नतीजा होता है रचनात्मकता।
फंडा यह है कि किताबें सफलता का रहस्य हैं। हमें फिर उनका मोल जानना होगा क्योंकि वे दिमाग में हलचल पैदा कर उसे बुद्धिमान बनाती हैं।

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