दैनिक भास्कर - मैनजमेंट फ़ंडा
एन. रघुरामन, मैनजमेंट गुरु
घर में अकेले रह रहे बच्चों को हमारी मदद की जरूरत है


April 20, 2021
घर में अकेले रह रहे बच्चों को हमारी मदद की जरूरत है
पिछले साल लॉकडाउन ने उनकी नौकरी छीन ली। उसी समय उन्हें कोविड से पीड़ित एक मित्र के बारे में पता चला, जिसमें खुद के लिए खाना बनाने तक की ताकत नहीं बची थी। जब तक वह ठीक नहीं हो गई, उन्होंने उसके लिए खाना बनाया। कभी ये साधारण दाल-चावल होते थे या तो कई बार तो खिचड़ी भी होती थी, थाली पकवानों से भरी नहीं होती थी, लेकिन इसमें बहुत सारा प्यार और परवाह होती थी। उस सादे खाने की महक आसपास फैलना शुरू किया और मानवीय स्पर्श की कमी से जूझ रहे लोगों ने उस सादे खाने के लिए अचानक उन्हें पुकारना शुरू कर दिया। पुणे के इस अनीता और सुभाष देशपांडे दंपति के लिए आगे चलकर यही काम बन गया। वे अचानक ही उन सभी ‘होम अलोन’ टेक बच्चों के लिए खाना बनाने में व्यस्त हो गए, जो घरबार छोड़कर अपना भविष्य बनाने के लिए इन टेक शहरों में आए। उन बच्चों को घर और उस अधेड़ उम्र के दंपति को मकसद मिल गया।
मैं उन्हें ‘होम अलोन’ किड्स कहता हूं, क्योंकि उन्होंने घर से बाहर निकलकर अलग शहर में अपनी आजीविका के पहले अवसर को लपक लिया ताकि अपने परिवारों में अपनी महत्ता साबित कर सकें। वे पुणे, बेंगलुरु या नोएडा (सभी टेक अनुकूल) जैसे शहरों में अपने अपार्टमेंट में अकेले रहते हैं, जब घर पर होते हैं तो कभी-कभार दरवाजे या बालकनी पर बिल्ली म्याऊं करती हुई दिख जाती है। वे अक्सर शहर में तफरी के लिए निकलते हैं और चूंकि फ्लैट का सारा काम बाहरी व्यक्ति कर देते हैं, ऐसे में ये अपार्टमेंट का इस्तेमाल सिर्फ सोने के लिए करते हैं। पर कोविड की दूसरी लहर ने इन ‘होम अलोन’ बच्चों की पूरी जिंदगी बदल दी है। उनके ज्यादा निगरानी रखने वाले सोसायटी सदस्यों ने हर जरूरी आपूर्ति करने वाले बाहरियों- मेड्स, खानसामा, खाना डिलीवरी करने वाले, यहां तक कि किराने वाले- को भी प्रतिबंधित कर दिया है। सोसायटी के दरवाजे के नजदीक कुछ सैकड़ों मीटर दूरी पर किराने के सामान उठाने की कॉमन जगह तय कर दी है। उनके दफ्तर ने घर से काम अनिवार्य कर दिया है। ऐसे में उनका दिन हाथ में झाड़ू से शुरू और पोंछे पर खत्म होता है। वे सफाई करते हैं, खाना बनाते हैं, काम करते हैं, खाते हैंं, सफाई करते हैं और सो जाते हैं। और इसी जगह आकर वे अपने सगे-संबंधियों की कमी को महसूस करते हैं, खासकर मां की उपस्थिति। अगर वे यहां होती तो उनका प्रेम भरा स्पर्श, दुलार भरे शब्द, गर्म खाना मिलता। बच्चे अगर छींकते भी तो घर का बना काढ़ा देती और हमेशा उनके होठों पर प्रार्थना होती। घर हमेशा किसी न किसी चीज जैसे दाल, अगरबत्ती या मिठाई से महक रहा होता।
अब चाहें या न चाहें, ये बच्चे फंस गए हैं। अकेले रहने के साथ समस्या ये है कि एक समय के बाद, दिमाग खेल खेलने लगता है। मानवीय संपर्कों से पूरी तरह कटने से थोड़ी हताशा घेर लेती है, खासकर इस महामारी में, जहां मोबाइल में आने वाला हर वाट्सएप संदेश डरावना रहता है।
यही कारण है कि देशपांडे दंपति का यह साधारण-सा प्रयास मुझे अच्छा लगा। उनकी अच्छाई रिटर्न गिफ्ट के रूप में वापस आई। महामारी ने घर में अकेले रह रहे बच्चों के लिए शायद हमें खानसामा बनने का मौका दिया, पर मदद की ये पेशकश सिर्फ 14 दिन के आइसोलेशन पैकेज तक ही सीमित न रह जाए। यूं भी उनसे चंद प्यार भरे बोल और उनकी हालत पूछने में दिन के कुछ मिनटों के अलावा हमारा कुछ नहीं जाता। उनके माता-पिता का नंबर लें, वाट्सएप करके बताएं कि उनके लिए आपने क्या बनाया है। और उन्हें भरोसा दिलाएं कि आप महज एक फोन कॉल जितना ही दूर हैं। मेरा यकीन मानिए, उस बातचीत से आपके और आपके पूरे परिवार को ढेरों दुआएं मिलेंगी।
फंडा यह है कि इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि एक अच्छाई सैकड़ों के रूप में वापस आती है।