दैनिक भास्कर - मैनजमेंट फ़ंडा
एन. रघुरामन, मैनजमेंट गुरु
जिंदगी की लंबाई नहीं गहराई मायने रखती है


March 14, 2021
जिंदगी की लंबाई नहीं गहराई मायने रखती है
‘आज यह तुम्हारी पहली एकल यात्रा है। शायद यह तुम्हें आजादी महसूस कराए कि अब तुम जो चाहो वो कर सकते हो और देखने वाला कोई नहीं है, पर मेरा यकीन मानो यह तुम्हारी सबसे खतरनाक यात्रा है। तुम गलत रास्ते पर यात्रा करके सही गंतव्य तक पहुंचने की उम्मीद नहीं कर सकते, ठीक उसी तरह अपनी जिंदगी गलत तरीकों से जीकर जिंदगी से सही रास्ता लेने की उम्मीद नहीं कर सकते। संक्षेप में कहूं तो सही जिंदगी पाने के लिए सही रास्ता चुनना ज्यादा जरूरी है।’ 2 नवंबर 1978 को नागपुर से मुंबई की मेरी पहली एकल रेल यात्रा में चटर्जी अंकल से मुझे मिली एक मिनट की इस सलाह ने मुझे अगले दो घंटे सोच में डाल दिया।
वे शब्द मेरे दिल में इतने गहरे उतर गए कि अभी तक अंदर कहीं मौजूद हैं और इतने सालों में मुझे बार-बार याद दिलाते रहते हैं, खासतौर पर जब मैं मुंबई में अपनी बैचलर जिंदगी जी रहा था, जहां पढ़ाई और कामकाजी जिंदगी के बीच हर रोज़ संतुलन बैठाने की कोशिश करता था। उन दिनों मेरी दो मजबूरियां थीं- पढ़ाई से मुझे खुद को बेहतर बनाना था पर ठीक उसी समय मैं काम करने और पैसा कमाने के लिए बाध्य था। कड़ी मेहनत करना व पैसा कमाना कोई मुद्दा नहीं था। पर अपने खर्च का हिसाब रखना मेरे लिए सबसे मुश्किल काम था। पर चटर्जी अंकल ने उस यात्रा के दौरान मुझे यही बात कही। ‘तुम अपने बहीखाते को जितना साफ रखोगे, उतने नेक इंसान बनोगे। अगर तुम्हें खुद के लिए शर्ट खरीदने या फिल्म देखने का मन होता है, तो जाओ फिल्म देखो, शर्ट खरीदो। पर कौन-सी फिल्म देखी और इसके लिए कितना पैसा खर्च किया, ये सब अपने बहीखाते में लिखने का साहस तुममें होना चाहिए। ये तुम्हें कुछ सालों बाद समझ आएगा।’ और वे कितना सही थे।
शायद यही कारण है कि मैं 1975 की सबसे प्रसिद्ध फिल्म शोले को सबसे मशहूर मिनर्वा थिएटर की 70 एमएम की स्क्रीन पर देखने के लिए नौ रुपए में ब्लैक में टिकट खरीदना कभी नहीं भूल सकता। हर बार जब भी मैं अपनी डायरी देखता हूं, कुछ टीस-सी भर आती है कि भले ही मेरे माता-पिता ने इसके खिलाफ कभी कुछ नहीं कहा पर मैं उस पैसे का इस्तेमाल किसी अच्छे काम के लिए कर सकता था। शायद वह पहला और आखिरी मौका था, जब मैंने कभी भी सिनेमा या ट्रेन की टिकट कालाबाजारी करने वाले से ली थी।
फेरीवालों पर मेरी खीझ को देखते हुए अंकल ने मुझे एक और बात कही, वे हर थोड़ी देर में ट्रेन में कुछ न कुछ सामान बेचने के लिए आ रहे थे। उस बात का आज अपनी कार में यात्रा के दौरान भी मैं बहुत सख्ती से पालन करता हूं। उन्होंने कहा था, ‘हमारा नजरिया जिंदगी के प्रति हमारा दृष्टिकोण और लोगों से रिश्ते तय करता है। यहां तक कि सफलता और असफलता के लिए बीच यही इकलौता अंतर है। और अधिकांश समय हमारा नजरिया मुश्किलों को दुआओं में बदल देता है।’ और उन्होंने फेरीवालों के साथ कुछ बिल्कुल अलग किया। उन्होंने उनसे अच्छी तरह से बात की और जब भी वे हमारी सीट से होकर गुजरे, हर बार उन्हें देख मुस्कुराए और एक बार उनके बच्चों को ‘रावलगांव’ टॉफी भी दी। मुझे नहीं पता कि ये ब्रांड आज बाजार में है या नहीं। उन्होंने उनसे कुछ नहीं खरीदा। आज मुंबई में अपने नियमित रास्ते के दौरान सिग्नल पर जब भी मेरी कार रुकती है, तो मैं हर फेरीवाले को देखकर मुस्कुराता हूं, कई बार उन्हें बिस्किट के पैकेट या पानी की बोतल की पेशकश भी करता हूं। वे भी मेरा चेहरा पहचान लेते हैं और जानते हैं कि मैं कुछ नहीं खरीदता, बावजूद इसके वे आगे ट्राफिक जाम और मुझे कौन-सा बदला हुआ रास्ता लेना चाहिए, इसकी जानकारी देकर मेरी मदद करते हैं।
फंडा यह है कि आपने कितना लंबा जीवन जिया और कितना धन कमाया, यह जीवन नहीं है बल्कि कितनी गहराई में जाकर दूसरों की जिंदगी को छुआ, यह जीवन है।

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