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   दैनिक भास्कर - मैनजमेंट फ़ंडा    
एन. रघुरामन, मैनजमेंट गुरु 

जिंदगी गुणा-भाग के रास्ते पर नहीं चलनी चाहिए

जिंदगी गुणा-भाग के रास्ते पर नहीं चलनी चाहिए
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July 11, 2021

जिंदगी गुणा-भाग के रास्ते पर नहीं चलनी चाहिए


मुझ जैसे उत्साही खेलप्रेमियों के लिए आज उत्सव का दिन है, जो कोपा फाइनल देखने से लेकर, विम्बलडन पुरुष फाइनल, महिला टी-20 क्रिकेट मैच, जहां भारत इंग्लैड के खिलाफ भिड़ेगा और आखिर में देर रात यूरो फाइनल देख सकेंगे। आने वाले दिनों में टोक्यो ओलिंपिक भी शुरू होने वाला है। कई खेलों में तीन विजेता होते हैं- स्वर्ण, रजत और कांस्य। अगर आपको विजेताओं के चेहरे ध्यान से देखने का मौका मिले, तो पाएंगे कि स्वर्ण पदक विजेता सातवें आसमान पर होता है। अगला सबसे ज्यादा प्रसन्न चेहरा कांस्य विजेता को होगा, जबकि रजत विजेता कम मुस्कुराएगा, दुखी महसूस करेगा अपनी हताशा खुलकर जाहिर करेगा।

ये कोई अचानक हुई खोज नहीं है बल्कि रजत और कांस्य विजेताओं की प्रतिक्रियाओं पर हुए कई शोध-अध्ययन के बाद प्रमाणित तथ्य है! देखा जाए तो रजत विजेता को कांस्य विजेता से ज्यादा खुश होना चाहिए। पर इंसानी दिमाग गणित की तरह काम नहीं करता। ये काउंटरफैक्चुअल (प्रतितथ्यात्मक) थिंकिंग से चलता है। यह मनोविज्ञान की एक अवधारणा है, जो इंसानी प्रवृत्ति के बारे में बताती है कि मनुष्य जीवन में घट चुकी घटनाओं के संभावित विकल्प सोचता है। ये विकल्प भी, जो हो चुका है उससे उलट होते हैं। रजत पदक हारने के बाद जीतते हैं, पर कांस्य जीतने के बाद जीता जाता है। ये कारण हो सकता है कि रजत विजेता सोचता है, ‘मैं स्वर्ण पदक नहीं जीत सका।’ कांस्य विजेता सोचता है, ‘कम से कम मुझे मैडल तो मिला।’

ये हमारी जिंदगी में भी होता है। जो चीज हमारे पास है, उसकी सराहना नहीं करते और जो नहीं है, उस पर दुखी होते हैं। मुंबई से मेरी एक रेल यात्रा में एक यात्री शिकायत करे जा रहा था कि तत्काल का पैसा देने के बावजूद उसे उसकी चाही लोअर बर्थ नहीं मिली। वह कह रहा था कि कैसे रेलवे ने उससे दोगुना पैसा लिया, पर उस जैसेे वरिष्ठ नागरिक को लोअर बर्थ नहीं दी। वह खुश नहीं था कि दो दिन पहले अंतिम क्षणों में यात्रा का निर्णय लेने के बावजूद कम से कम उसे सोने के लिए बर्थ तो मिली।

इससे उलट एक और व्यक्ति था जिसकी बर्थ बोगी के आखिर में टॉयलेट के पास थी। पर वह खुश था कि कम से कम ट्रेन में किसी तरह यात्रा कर पा रहा है। मैंने देखा कि वह हर किसी से बात कर रहा था कि कैसे उसे बर्थ मिली और क्यों वह अपने गृह नगर जा रहा है। जब मैंने पूछा कि वह हर किसी को क्यों अपनी कहानी बता रहा है, तब उसने बताया कि एक रात पहले ही उसके पिता को कैंसर का पता चला है। और उसने तय किया कि इस गंभीर बीमारी के इलाज के लिए विख्यात मुंबई के टाटा मेमोरियल अस्पताल में वह पिता को दिखाएगा। उसने ये स्वीकारा कि शायद अपनी कहानी कहने से बोगी में उसे ऐसा व्यक्ति मिल जाए, जिसे पता हो कि उस व्यस्ततम अस्पताल में डॉक्टर्स से जल्दी से जल्दी कैसे मिला जा सकता है। उसे बोगी में एक डॉक्टर भी मिल गया, जिन्होंने वाट्सएप पर उससे रिपोर्ट्स मांगी और देखकर उसे परामर्श भी दिया कि आगे कैसे इलाज कराना है।

मुझे उसका ये एटीट्यूड पसंद आया। एक दिन पहले उसे ये भी नहीं पता था कि टिकट मिलेगी या नहीं। पर जब मिल गई, भले ही सीट टॉयलेट के नजदीक थी, पर वह बड़बड़ाया नहीं। उसने न सिर्फ यात्रा का आनंद उठाया बल्कि आने वाले कल पर अपना ध्यान लगाते हुए साथी यात्रियों से मदद मांगी। यही कारण है कि मैंने उसकी मदद करने का फैसला किया और मेरे परिचित डॉक्टर्स से उसका संपर्क कराया।

फंडा ये है कि कुलमिलाकर खुशी के लिए कौन सा मैडल बेहतर है- रजत या कांस्य? ये आपकी सोच पर निर्भर करता है और ये सिर्फ गणित या गुणा-भाग से नहीं चलनी चाहिए।

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