दैनिक भास्कर - मैनजमेंट फ़ंडा
एन. रघुरामन, मैनजमेंट गुरु
पुरानी और अच्छी आदतों के साथ ‘होल्डाल रिटर्न्स’


Aug 17, 2021
पुरानी और अच्छी आदतों के साथ ‘होल्डाल रिटर्न्स’
आप सभी ने इन बॉलीवुड फिल्मों जैसे रिटर्न ऑफ ज्वैल थीफ (1996), गोलमाल रिटर्न्स(2008) और सिंघम रिटर्न्स (2014) के बारे में सुना होगा, कुछ ने तो देखी भी होंगी पर ऐसा लग रहा है कि ये साल 2021 एक नए शब्द ‘द रिटर्न ऑफ द ‘होल्डाल’ के नाम होने जा रहा है, कम से कम भारतीय रेल यात्रियों के लिए!
होल्डाल के बारे में कुछ नहीं जानने वाली युवा पीढ़ी को मैं बता दूं कि बाहर से रूखे इस्तेमाल के लिए टाट से बना आमतौर पर हरे रंग का ये हल्का वजनी बेडरोल है, जबकि इसके अंदर पूरे परिवार के लिए ढेर सारी चादरें और तकिया पैक कर सकते हैं। उन दिनों जब एक्सप्रेस ट्रेनें कम थीं और यात्रा बोझिल हुआ करती थी, ये पूरे परिवार की ट्रैवल किट का स्थायी हिस्सा हुआ करता था। रेल्वे के उन शुरुआती दिनों में उत्तर से दक्षिण की यात्रा में 48 घंटे लगते थे और दो रातें सोने के लिए होल्डाल यात्रा का हिस्सा होता था। दिलचस्प है कि मैं कुछ लोगों को जानता हूं, जब 1960 के शुरुआती दौर में चावल मिलना दूभर हो गया था, वे तकियों की खोल में तकियों के बजाय चावल की तस्करी करते थे। चूंकि ये होल्डाल का हिस्सा होता था और स्टेशन पर लगेज जांचने वाली कोई मशीन नहीं होती थी। ऐसे में घर के कमाने वाले ये लोग चुंगी (कर) की चैकिंग से बचकर निकल जाते थे। पर रेल्वे के एसी कोच में चादर, तकिया व कंबल के साथ तौलिया और साबुन की सुविधा के कारण सारे काम आने वाला ये होल्डाल धीरे-धीरे अपनी महत्ता खोता गया।
पर कोरोना के कारण साल 2020 के बीच से सारी ट्रेनों से ये सुविधा वापस ले ली गई है। ये कारण हो सकता है कि टियर 3 शहरों और गांवों के बीच पिछले चार दिनों की अपनी यात्रा के दौरान मैं एसी डिब्बों के यात्रियों के बीच होल्डाल की वापसी देख रहा हूं। कुछ लोग अपने बेडरोल को इस तरह पैक कर रहे हैं, जैसे वो पुराने जमाने के होल्डाल हों। इनकी चौड़ाई इतनी परफेक्ट होती है कि ये बर्थ से बाहर नहीं गिरता। ये विदेश में मिलने वाले स्लीपिंग बैग की तरह दिखने लगा है।
पर उनके व्यवहार में भी अच्छा बदलाव आया है। आजकल कोई भी चादरों से अपने जूते नहीं पोंछता, क्योंकि ये उनके घर की हैं और काली चमचमाते जूतों की क्रीम लगी चादर घर ले जाना घरेलू झगड़े का सबब बन सकता है। ये वही यात्री हैं जो तौलिये, चादर, कंबल से न सिर्फ जूते का ऊपरी हिस्सा साफ करते थे बल्कि जब ट्रेन आखिरी स्टेशन के करीब होती तो इससे जूते के नीचे भी साफ कर लेते थे।
इन दिनों यात्रा करने वालों में एक और बड़ा बदलाव मैं देख रहा हूं कि कोरोना के डर से लोग अपनी बर्थ को साफ-सुथरा छोड़कर जा रहे हैं, जैसा पुराने समय में हुआ करता था। हालांकि अभी भी कुछ लोग खाने के पैकेट और पानी की बोतलें पीछे छोड़ जा रहे हैं। पर वे दोबारा इस्तेमाल में आने वाले निजी सामान जैसे बैडशीड आदि को सफाई से पैक करके अपने होल्डाल में रख रहे हैं।
पर कुलमिलाकर आम यात्रियों में स्वच्छता को लेकर जागरूकता बढ़ी है। महामारी से पहले की तुलना में लोग ज्यादा हाथ धो रहे हैं। अक्सर साबुन-सैनेटाइजर प्रयोग कर रहे हैं। खांसने या छींकने के दौरान न सिर्फ मुंह बंद कर रहे हैं, बल्कि इर्द-गिर्द मौजूद लोगों की आंखों में देखकर सॉरी भी बोल रहे हैं। मुझे आश्चर्य है कि लोक व्यवहार की ये सामान्य सी आदतें सीखने के लिए हमने कोविड का इंतजार क्यों किया।
फंडा ये है कि यात्रा के दौरान अपने सामान को सफाई और सावधानी से इस्तेमाल करने की पुरानी अच्छी आदतों को होल्डाल वापस ले आया है, हमारे लोक व्यवहार के लिए ये स्वागत योग्य बदलाव है। आशा है कि लोग महामारी के बाद ऐसा व्यवहार तब भी जारी रखेंगे जब रेलवे एक बार फिर से तकिया-चादर आदि देने लगेगा।

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