दैनिक भास्कर - मैनजमेंट फ़ंडा
एन. रघुरामन, मैनजमेंट गुरु
बर्तन की तरह करें अपनी अंदरूनी सफाई


Aug. 5, 2021
बर्तन की तरह करें अपनी अंदरूनी सफाई
बुधवार को जब मैं फ्लाइट में बैठने जा रहा था, मैंने मुंबई के अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे के लाउंज में भारी भीड़ देखी। यह वही लाउंज था जहां तीन महीने पहले बिल्कुल ग्राहक नहीं थे। उनके कर्मचारी एयरपोर्ट के कोने-कोने में जाकर यात्रियों को लाउंज में समय बिताने के लिए बुलाते रहते थे। लेकिन इस हफ्ते से यहां 2600 से 3200 लोग प्रतिदिन आने लगे हैं। जब मैं उस लंबी कतार की तस्वीर खींच रहा था, वहां से अपने बच्चे को स्ट्रोलर में लेकर एक युवा मां निकली, जिसकी मां भी उसके साथ थी। उसने कुछ मराठी में कहा, जिसे मैं आधा ही सुन पाया और मेरे दिमाग ने बाकी के कथन का अंदाजा लगाया। और यह था, ‘काई पन, कुठे पिक्चर काढायची, असा कई नक्की नाहीं’। (कुछ भी, कहीं भी फोटो निकालते हैं) मुझे लगा कि अनकहा कथन था, ‘हम भारतीयों को मोबाइल फोन क्या मिल गए, किसी भी चीज की तस्वीर खींचते रहते हैं।’ इस बात के बाद उनकी हंसी ने मेरी शंका को पक्का कर दिया और मैं थोड़ा आहत हुआ। चूंकि हम सभी मास्क पहनकर चलने लगे हैं इसलिए होठ नहीं पढ़ पाते और खुद ही मन में किसी की बात का वाक्य बनाकर लोगों के बारे में धारणा बना लेते हैं।
स्वाभाविक है कि मेरी धारणा युवा मां के बोलने के लहजे पर आधारित थी। लेकिन मैंने महसूस किया कि वह अमीरों की उस नई नस्ल की नहीं लग रही थी, जो ऐसी टिप्पणी करते हैं। इसलिए मैंने उसके पास जाकर बतौर पत्रकार अपना परिचय दिया और फोटो खींचने का उद्देश्य समझाया, ‘अगर मेरी स्टोरी के साथ फोटो भी हो तो मदद मिलती है।’ फिर उसने परिचय दिया कि वह इंदौर से है लेकिन शादी के बाद पेरिस में रहती है। फिर उसने मेरी धारणा बदली। उसने दरअसल मां से कहा था कि, ‘लाउंज साठी पन किती क्यू आहे।’ (लाउंज के बाहर कितनी लंबी लाइन है)। फिर उसने मुझे किसी युवा छात्रा की तरह ‘जानी-पहचानी मुस्कान’ दी, और मां से कहा, ‘एक दशक पहले मैं शायद खुद ऐसी तस्वीर खींचती।
इस बातचीत से मुझे थोड़ी राहत और संतोष मिला, मुख्यत: इसलिए क्योंकि मेरी पुरानी धारणा ने युवाओं के प्रति मेरी सोच को जहरीला बना दिया था। इससे शायद मैं युवा पीढ़ी के बारे में कुछ बुरा लिखता। उससे संपर्क करने के मेरे प्रयास और उसके समझाने के प्रयास ने मेरी गलत धारणा मिटा दी।
इस ‘मास्क में छिपी’ नई दुनिया में अगर आप सिर्फ कानों सुनी पर भरोसा करेंगे तो गलत होगा। महामारी से पहले की बिना मास्क वाली दुनिया में आंखें होठों को देखने में मदद करती थीं और न सिर्फ कानों से समंजस्य बैठाती थीं, बल्कि बात की पुष्टि भी करती थीं।
इसलिए मास्क में छिपी दुनिया में किसी की बात की पुष्टि के लिए उसके पास जाएं, ताकि दिल पर गलत धारणा का बोझ और कोई अफसोस न हो। इसमें थोड़ा समय और प्रयास लगेगा और कभी-कभी आपको अपने अहम को छोड़ना होगा।
यह अच्छा है क्योंकि इससे आपको अंदरूनी सफाई का अहसास होता है, जैसे आप रसोई के बर्तन धोते हैं। बर्तन को अच्छे से साफ करने के लिए आप बाहर की बजाय अंदर ज्यादा जोर से घिसते हैं। आप खुद को अंदर से जितना ज्यादा घिसेंगे, बाहर से उतने ज्यादा चमकेंगे।
फंडा यह है कि ‘मास्क में छिपी’ नई दुनिया में अगर आपकी पांचों इंद्रियों में सामंजस्य नहीं बैठ पा रहा है तो खुद को अंदर से घिसें, जैसे रसोई के बर्तन घिसते हैं।

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