दैनिक भास्कर - मैनजमेंट फ़ंडा
एन. रघुरामन, मैनजमेंट गुरु
बुरे फैसलों के पीछे अक्सर उतावलापन होता है
August 1, 2021
बुरे फैसलों के पीछे अक्सर उतावलापन होता है
72 साल के पोन्नुस्वामी इस बुधवार को कोयम्बतूर में अपनी पत्नी के साथ शाम को टहल रहे थे तभी एक युवा बाइकर लगातार हॉर्न बजाए जा रहा था और उन्हें गाड़ी से लगभग टक्कर मार दी थी। वो इसलिए क्योंकि वह बुजुर्गवार उसके हॉर्न पर धीमी प्रतिक्रिया दे रहे थे और बाइकर के रास्ते से हटने में देर कर रहे थे। इतना ही नहीं उन बुजुर्ग ने उस युवा को सड़क पर खराब व्यवहार के लिए फटकार भी लगाई। पोन्नुस्वामी के पड़ोसी का दामाद वह बाइकर गाड़ी से उतरा, उन्हें लात मारी और नीचे गिराकर भाग गया। भले ही पोन्नुस्वामी को उपचार मिल गया, लेकिन अगले दिन उनकी मौत हो गई। पुलिस ने शिवा के खिलाफ धारा 302 के तहत हत्या का मुकदमा दर्ज किया और उसे गिरफ्तार करने के लिए एक टीम बनाई। ये तय है कि जैसे-जैसे दिन गुजरेंगे शिवा के इस उतावलेपन के दुष्परिणाम सामने आएंगे।
इससे मुझे मेरे उतावलेपन की याद आ गई जब मैं आठवीं कक्षा में साइकिल की जिद पकड़कर बैठा था। भले ही मैंने कितना भी सताया, पर मेरे पिता उस दबाव के आगे नहीं झुके। मैं अपने दोस्त की साइकिल उधार लेता और घर के कई काम करके ये साबित करने की कोशिश करता कि घर के कामों के लिए साइकिल कितनी जरूरी है। पिता शांति से कहते कि ‘मैं तुम्हें साइकिल किराए से लेने के लिए पैसे दूंगा।’ एक घंटा किराए की साइकिल के लिए वह पांच पैसा देते पर एक साइकिल नहीं खरीदी। पागलपन से भरी सारी कोशिशों के बावजूद मुझे जूनियर कॉलेज पहुंचने तक इसका इंतजार करना पड़ा। ढाई साल इंतजार के बावजूद पिता ने साइकिल इस शर्त के साथ खरीदी कि अगर उन्होंने किसी से भी सुना कि मैंने साइकिल जल्दबाजी या लापरवाही में चलाई तो यह वापस ले ली जाएगी। उसकी कीमत सिर्फ 110 रुपए थी। मैंने न सिर्फ उसे सावधानी से चलाया बल्कि सफाई और ऑइलिंग करते हुए उसका रखरखाव भी बहुत अच्छे से किया। जब उच्च शिक्षा के लिए मैं मुंबई गया, वही साइकिल मैंने 180 रुपए में बेची।
लेकिन आज के अभिभावक बच्चों को किसी भी चीज चॉकलेट से लेकर कपड़ों या साइकिल-गाड़ी तक का इंतजार करवाने की बात नहीं पचा पाते। इन दिनों अधिकांश माता-पिता ‘देरी से मिली चीज के आनंद’ का जरूरी मनोवैज्ञानिक सिद्धांत नहीं समझते क्योंकि हममें से अधिकांश लोग बेसब्र लोगों की पीढ़ी से आते हैं। इस अधीरता के लिए हम खुद को दोष नहीं दे सकते क्योंकि भारतीय होने के नाते हमें जरूरत की हर चीज के लिए संघर्ष करना पड़ा। चाहे राशन हो या बस-ट्रेन या सिनेमा हॉल की सीट या फिर आम सी रोज की जरूरत जैसे सुबह दूध की बोतल। उन दिनों दूध बोतलों में मिल्क बूथ पर मिलता था।
धैर्य एक गुण है। मुझे लगता है कि आज की दुनिया में बचपन से ही धैर्य के गुण के बारे में नहीं सिखाया जाता। हम अपने बच्चों को नहीं कहते कि इस उतावलेपन के उन्हें परिणाम भुगतने होंगे। इसके न सिर्फ आर्थिक खामियाजे होंगे बल्कि ये दर्द और पीड़ा का सबब भी बनेगा। जबकि धैर्य आपको गलत निर्णय लेने से रोकेगा।
जब मैं ये लेख लिख रहा था, तभी मेरी बेटी का वीडियो कॉल आया और वह हमारे पेड़ से कटहल काटने की इजाजत मांग रही थी। तस्वीर देखकर मुझे लगा कि कटहल पूरी तरह नहीं पका है और उसे तीन दिन इंतजार करने के लिए कहा। पर उसने मेरी सलाह न मानकर उसे काटने का फैसला किया। उसके उतावलेपन का नतीजा ये निकला कि उसे न इसका स्वाद पसंद आया साथ ही वह और उसके दोस्त पूरा कटहल भी नहीं खा पाए।
फंडा ये है कि धैर्य दिखाना न सिर्फ शिष्टाचार की निशानी है बल्कि ये आपको भविष्य में आने वाली मुश्किलों और दुखों से भी बचाता है।