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   दैनिक भास्कर - मैनजमेंट फ़ंडा    
एन. रघुरामन, मैनजमेंट गुरु 

मन की बात कहने से पहले मन में कहें

मन की बात कहने से पहले मन में कहें
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मन की बात कहने से पहले मन में कहें

पिछले हफ्ते मैं स्कूली बच्चों की एक ऑनलाइन क्लास का हिस्सा था, जिसमें उनके साथ एक या दोनों पैरेंट्स थे। क्लास गैर-अकादमिक थी, जिससे पैरेंट्स में यह गलत भावना आ गई कि वे विषय जानते हैं और कुछ पैरेंट्स खुद को विशेषज्ञ समझने लगे, जो वे नहीं थे। मैं मूकदर्शक था। आयोजक ने किसी का माइक म्यूट नहीं किया था क्योंकि उसने सोचा कि पैरेंट जानते हैं कि सोशल प्लेटफॉर्म पर कैसे व्यवहार करना है। उसने सभी से क्लास के पहले कहा कि आप खुद को अनम्यूट कर मुझसे बात कर सकते हैं लेकिन पहले ‘hi’ आइकन प्रेस करें।


क्लास शुरू होते ही एक पैरेंट ने हस्तक्षेप करते हुए अधिकारपूर्ण लहजे में कहा, ‘मैडम, सीधे मुख्य मुद्दे पर आइए।’ उस लहजे ने मुझे तक परेशान कर दिया, तो आप उस टीचर की स्थिति समझ सकते हैं, जिसे ऐसा कहा गया। टीचर ने यहां गलती की। उसने भी वही लहजा दोहराते हुए कहा, ‘मैडम, प्लीज समझें कि यह क्लास बच्चों के लिए है और हम जानते हैं कि उनसे कैसे बात करनी है।’ इस तीखे जवाब से कहा-सुनी शुरू हो गई। ‘अच्छा आप बताएंगी कि पैरेंटिंग कैसे करते हैं, मैं तीन बच्चों की मां हूं…. आपकी तो शादी तक नहीं हुई.. वगैरह।’ इससे युवा टीचर रुंआसी हो गई। प्रिंसिपल को हस्तक्षेप करना पड़ा और स्थिति बिगड़ती गई। वह पैरेंट जैसे कोई यूनियन लीडर बन गई और अन्य पैरेंट्स से समर्थन मांगने लगी।


हालांकि बाद में सभी पैरेंट्स और मुझे म्यूट कर दिया गया। लेकिन मैं देख सकता था कि टीचर का आत्मविश्वास हिल गया था और कभी-कभी वह विषय से भटक रही थी। जब भी वह शिकायत करने वाली पैरेंट के मुताबिक बात नहीं करती, तो वह पैरेंट कम्प्यूटर पीटते हुए बड़बड़ाने लगती, जिसे कोई सुन नहीं सकता था, पर उसके इशारे देख सकते थे।


मैंने बाद में सुना कि टीचर को महसूस हुआ कि उसे अब बच्चों से वैसा सम्मान नहीं मिलता, जैसे इस ऑनलाइन मीटिंग से पहले मिलता था और उसने इस्तीफा दे दिया। स्कूल प्रिंसिपल ने उस युवा टीचर को समझाने के लिए मेरी मदद मांगी और मैंने किसी तरह उसे रुकने के लिए मना लिया। वह टीचर न सिर्फ अपने विषय में होशियार है, बल्कि अच्छी वक्ता भी है, जो उस दिन अशांत हो गई थी। ऐसा इसलिए क्योंकि उसे ऐसे पैरेंट से जवाब मिला था, जो उसके जितनी पढ़ी-लिखी नहीं थी।


इससे मुझे बचपन की छोटी-सी घटना याद आई। नागपुर में हमारे घर के पीछे स्थित टेकड़ी गणेश मंदिर जाने के लिए जब भी मेरी तीसरी कक्षा की शिक्षिका हमारी गली से गुजरती थीं, मेरे पिता खड़े हो जाते थे। मेरे पिता सुशिक्षित थे और आप जानते ही हैं कि पांच दशक पहले प्राइमरी टीचर कितने शिक्षित होते थे। फिर भी पिता जी मेरे तीसरी कक्षा पास करने के बाद भी उन शिक्षिका का बहुत सम्मान करते थे। वे उन्हें हमेशा ‘टीचर’ कहते थे। वे उनका इतना सम्मान करते थे और यह संस्कृति अनजाने में मेरे अंदर भी आ गई।


अगर हम शिक्षक संग वैसा व्यवहार करेंगे, जैसे हम मोलभाव के लिए किसी दुकानदार से करते हैं क्योंकि उन्हें फीस देते हैं, तो न सिर्फ हमारे, बल्कि दूसरों के बच्चों की नैतिकता और चरित्र पर भी नकारात्मक असर पड़ सकता है।


फंडा यह है कि किसी भी ऑनलाइन मीटिंग में सीधे अपने मन की बात न करें, बल्कि पहले मन में बात करें, देखें कि क्या नतीजा निकल सकता है और फिर बोलें, खासतौर पर जब बच्चे आपका व्यवहार देख रहे हों।

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